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________________ १५० परमार अभिलेख (अनुवाद) सिद्धि। ओं। १. क्षीर समुद्र के मध्य...के समान सुशोभित अपने फैलने वाले गंभीर नाद से जिसने दिशाओं को व्याप्त कर लिया है, श्रीकृष्ण के हाथ में स्थित पंचजन्य शंख, शतभद्र जाल के समान आप को आनन्द प्रदान करे । २. जिसके बजाने पर... शत्रुओं के अश्व त्रास से मार्गभ्रष्ट होते हैं, ब्रह्मदेव जिस नारायण के मुख को. . . ब्रह्मांड खण्ड . . . वह मुरारि के मुख से लगा हुआ व नाद करता हुआ पंचजन्य शंख आपका रक्षण करे। ३. ... इस परमार वंश में. . .श्री वाक्पति का मुख... । ४. उत्पन्न हुआ... नरेश . . . युद्ध का. . . उदयार्क (उदयादित्य). . . । ५. श्रीमान् विजयी, जिसने अपने बाहुबल से राजलक्ष्मी प्राप्त की, उसका प्रखर तेजयुक्त पुत्र नरवर्मन् नामक जब पृथ्वी पर शासन कर रहा था तो उसके गुण-बखान करने में कवि भी असमर्थ थे। (वह) प्रजाओं को आनन्द प्रदान करने की चरम सीमा थी। ६. ब्राह्मण वर्ण में पृथ्वी पर प्रसिद्ध मयाणकाक्ष . . .है जो अपने सत् आचरण से सदा सुशोभित है। ७. उस निर्मल नायक बालवंश में भारद्वाज कुल में उत्पन्न . . .श्रीस्तम्भ नामक ब्राह्मण हुआ। ८. उसका पुत्र . . .णराज नामक हुआ जिसने अपनी शुद्ध कीर्तियों से दिशायें ध्वलित कर दी थीं। उसका पुत्र भी उच्चकीर्ति वाला श्री विक्रम नामक त्यागियों के मुख-कमलों के लिए सूर्य के समान हुआ। ९. उसने इस तड़ाग को बनवाया। शुद्ध धन द्वारा...चिन्ह रूप एक स्तम्भ लगवाया जिस पर गरुड़ की मूर्ति स्थापित थी। उसका जल शुद्ध था। १०. ...जहां पर हाथी. . . ब्रह्मचारी के द्वारा स्नान, संध्या, देव ऋषि, पितृ तर्पण हेतु ... ११. जिस सरोवर का तट विस्तृत है व शिलातल सदा निर्मल है। जब अधिक ताप होता तो मछली, मगर व अन्य जलजन्तुओं के द्वारा जिसका तल प्रयोग में लाया जाता था। १२. जहां पर गूंजन करने वाले हंस, राजहंस, कारण्डव, मयूर, सारस व चक्रवाकों द्वारा जिसका उपयोग किया जाता है। १३. प्राणिमात्रों के कल्याण के हेतु जिसने यह तड़ाग बनवाया व जिसकी भूमि पर बनवाया, वह पुण्य का भागी है। १४. जिस जल से प्रभ ने कल्प-कल्प में सारी प्रजायें निर्मित की उस जल जैसा श्रेष्ठ दान न हुआ है न होगा। १५. अपने हाथ से कमाये गये द्रव्य, राजमुद्रांकित पच्चीस सौटंक (सिक्के) तालाब में लगाये। २५००। २२. संवत् ११५१ आषाढ़ सुदि ७ को यह प्रशस्ति लिखी। सिद्धि हो। २३. पंडित राजपाल के पुत्र सौमति के द्वारा लिखी गई। २४. मालु (?)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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