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शेरगढ अभिलेख
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(४५) शेरगढ़ का जिन-प्रतिमा पादपीठ अभिलेख
(संवत् ११९१= ११३४ ई.) प्रस्तुत अभिलेख जिन-तीर्थंकर की प्रस्तर प्रतिमा के पादपीठ पर उत्कीर्ण है जो १९५३ में खोजा गया। यह शेरगढ़ दुर्ग के बाहर जैन मंदिर में है। यहां शांतिनाथ, कुन्थुनाथ एवं अरनाथ की तीन प्रस्तर प्रतिमायें हैं। अभिलेख मध्यवर्ती प्रतिमा के पादपीठ पर है। इसका विवरण डी.सी. सरकार ने एपि. इं., भाग ३१ पृष्ठ ८१-८६ में छापा।
अभिलेख ८ पंक्तियों का है। इसका आकार ४७-१४ सें.मी. है। पत्थर काफी क्षतिग्रस्त है। प्रथम पंक्ति के अक्षर प्रायः टूट गये हैं। अक्षरों की लंबाई १.५ सें. मी. है। अक्षरों की बनावट १२ वीं सदी की नागरी लिपि है। भाषा संस्कृत है परन्तु त्रुटियों से भरपूर है। इस पर प्राकृत का प्रभाव है। अभिलेख पद्यमय है। इसमें शार्दूलविक्रीडित एवं अनुष्टुभ छन्दो में ५ श्लोक हैं।
____ तिथि संवत् ११९१ वैसाख सुदि ३ मंगलवार है जो श्लोक क्र. ३ के पूर्वार्द्ध में शब्दों में एवं अन्त में अंकों में लिखी है। यह २९ मार्च, ११३४ ई. के बराबर निर्धारित होती है। परन्तु दिन मंगलवार न होकर गुरुवार है। प्रस्तुत एक निजी अभिलेख है जिसका ध्येय उपरोक्त जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना करवाना था। इसमें राज्यकर्ता नरेश का नाम नहीं है, परन्तु उपरोक्त तिथि नरेश नरवर्मन् के शासनकाल में पड़ती है।
अभिलेख के विवरण के अनुसार सूर्याश्रम नगर में खण्डेलवाल कुल के माहिल की पत्नी निवास करती थी। इसके दो पुत्र श्रीपाल व गुणपाल शेरगढ़ में आ कर रहने लगे। श्रीपाल के देवपाल, एवं गुणपाल के शांति नामक पुत्र थे। शांति के नौ पुत्र होने का उल्लेख है जिनमें से पूनि, मर्थ, जन व इहलुक इन चार के नाम हैं। इन सभी ने वहां मंदिर में त्रिरत्न अर्थात् तीन तीर्थंकरों की मूर्तियां बनवा कर प्रतिष्ठापना करवाई। मूर्तियों का निर्माता सूत्रधार दांदि का पुत्र सूत्रधार शिलाश्री था। आगे देवपाल के सात पुत्रों के व कुछ अन्य नाम हैं। ये सभी प्रतिमा स्थापना में सहयोगी रहे।
अभिलेख में उल्लिखित तीन भौगोलिक नाम प्राप्त होते हैं:-सूर्याश्रम, मालव एवं कोशवर्द्धन । सूर्याश्रम का तादात्म्य अनिश्चित है। कोशवर्द्धन आधुनिक शेरगढ़ है जहां से अभिलेख पाप्त आ है। यहां मालवा शब्द महत्वपूर्ण है। कोशवर्द्धन को मालवा में निरुपित किया गया है। मालव जाति चौथी सदी ईसापर्व में पंजाब में वास करती थी। फिर वह धीरे धीरे राजस्थान के जयपुर क्षेत्र में आ बसी और वर्तमान मालव क्षेत्र तक विस्तृत हो गई। प्रस्तुत अभिलेख के समय तक शेरगढ़ क्षेत्र मालवा का ही भाग था। पूर्ववर्णित शेरगढ़ अभिलेख क्र. १४ से भी इसकी पुष्टि होती है।
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रहा
(मूलपाठ) (श्लोक १-३ शार्दूलविक्रीडित; श्लोक ४-५ अनुष्टुभ) --~~-~णेश्रित]~-माहिल्लभार्यान्तिमा -------[श]स्य तिलके सूर्याश्रमे पत्ति]ने ।
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