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________________ परमार अभिलेख ६. समस्त विषयकों, पटेलों, ग्रामीणों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों व अन्यों को आज्ञा देते हैं--आप को विदित हो कि श्रीयुक्त धारा में महाराजाधिराज परमेश्वर श्री । ७. यशोवर्मदेव द्वारा श्री विक्रम संवत् के एक हजार एक सौ इकानवे वर्ष में कार्तिक सुदि अष्टमी में पड़े महाराज श्री। .८. नरवर्मदेव की वार्षिकी पर तीर्थजल में स्नान कर देव ऋषि मनुष्य व पितरों को संतृप्त कर भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर समिधा दर्भ तिल अन्न ९. और घी की आहूतियों से अग्नि में हवन कर सूर्य को अर्घ्य देकर कपिला गाय की तीन प्रदक्षिणा कर संसार की असारता देख कर कमल दल पर १०. गिरे जल बिन्दु के समान चंचलतर जीवन तथा धन को देख कर, और कहा गया है-- - इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषयभोग प्रारम्भमात्र में ही मधुर लगने वाला है मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ।।३।। ११. ऐसा जानकर अद्रेलविद्धावरि स्थान से आये.. ....... . . १२. भारद्वाज गोत्री, भारद्वाज आंगिरस बार्हस्पत्य तीन प्रवर वाले, आश्वलायन शाखा के, दक्षिण से आये कर्णाट ब्राह्मण द्विवेद ठक्कुर १३. श्री महिरस्वामी के पौत्र, श्री विश्वरूप के पुत्र आवस्थिक श्री धनपाल के लिये ऊपर लिखे वडोद ग्राम व उथवणक ग्राम , १४. साथ में वृक्षों की पंक्तियों के समूह, निधि धरोहर सहित बापी कप तडाग से युक्त व जिसकी चारों सीमायें निश्चित हैं, चन्द्र सूर्य के रहते तक जल हाथ में लेकर १५. शासन (राजाज्ञा) द्वारा दिये गये हैं। संवत्सर बारह सौ की श्रावण सुदि पंद्रह सोम ग्रहण पर्व पर श्री पितरों के श्रेय के हेतु पुनः ये १६. दोनों ग्राम जल हाथ में लेकर शासन (राजाज्ञा) द्वारा हमारे द्वारा दिये गये हैं। अतः इन दोनों ग्रामों के निवासियों, समस्त पटेलों, लोगों तथा १७. कृषकों द्वारा उत्पादन कर हिरण्य भाग भोग आदि हमारी आज्ञा मान कर सभी इसके लिये देते रहना चाहिये। १८. और इसका सबके लिये समान रुप पुण्यफल जान कर हमारे वंश में व अन्यों में भी उत्पन्न भावी नरेशों द्वारा इस धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये। क्योंकि-- .. सगरं आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब तब उसी को उसका फल मिला है ।।४।।... ........ जो अपने द्वारा दी गई अथवा दूसरों के द्वारा दी गई भूमि का अपहरण करता है वह साठ हजार वर्षों तक विष्ठा का कीड़ा बनता है।॥५॥ ___ सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह समान रूप से धर्म का सेतु है .......॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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