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परमार अभिलेख
होता है कि पंक्ति २८ में मंगदेव का नाम उत्कीर्णकर्ता की भूल से दोहरा दिया गया है। यदि दानकर्ता गंगदेव था तो उससे ग्राम लेने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। दूसरे, उस स्थिति में राजकीय शासन पत्र की आवश्यकता नहीं होती, सामान्य दानपत्र ही पर्याप्त होता ।
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मणों का विवरण पंक्ति ३१-३६ में है--(१) नवगांव से आया, भार्गव गोत्री, भार्गव-च्यवन-आप्नवान-और्व-जमदाग्नि पांच प्रवरों वाला, माध्यंदिन शाखा का अध्यायी, द्विवेद वेद का पौत्र, पाठक हरिदर्शन का पुत्र अग्निहोत्रि माधव शर्मा ब्राह्मण के लिये ४ भाग; (२) टकारी स्थान से आया, गौतम गोत्री, गौतम-अंगिरस-औचथ्य तीन प्रवरों वाला, आश्वलायन शाखा का अध्यायी, द्विवेद लाषु का पौत्र, द्विवेद लीमदेव का पुत्र, चतुर्वेद जनार्दन शर्मा ब्राह्मण के लिए १ भाग; (३) घटाउपरि से आया, भारद्वाज गोत्री, अंगिरस-वार्हस्पत्य-भारद्वाज तीन प्रवरों वाला, माध्यंदिन शाखा का अध्यायी, दीक्षित केक का पौत्र, दीक्षित दिवाकर का पुत्र, दीक्षित धामदेव शर्मा ब्राह्मण के लिये १ भाग। इस सूचि में प्रथम ब्राह्मण, उसके पिता व पितामह की उपाधियां भिन्न हैं। दूसरे ब्राह्मण की उपाधि अपने पिता व पितामह से भिन्न है, जबकि तीसरे की एक समान है। प्रथम ब्राह्मण कुछ विशिष्ट रहा होगा क्योंकि उसको सबसे अधिक अंश दान में मिले थे।
दानकर्ता नरेश की वंशावली में क्रमश : भोजदेव, उदयादित्य, नरवर्मन्, यशोवर्मन्, अजयवर्मन्, विंध्यवर्मन्, सुभटवर्मन्, अर्जुनवर्मन्, देवपालदेव, उसका पिता हरिश्चन्द्र, बड़े पुत्र जयतुगिदेव एवं छोटे पुत्र दानकर्ता जयवर्मन् के उल्लेख हैं। सभी विवरण अलंकारिक भाषा में हैं। परमार वंश का उल्लेख श्लोक ५ में हैं। आगे कुछ अन्य विवरण भी हैं। अभिलेख नरेश द्वारा नियुक्त सांधिविग्रहिक पंडित श्री मालाधर की सम्मति से रचा गया। इसका लेखक श्रेष्ठ पंडित गविश पुत्र विद्वान हर्षदेव था। इसका संशोधक विद्वानों में श्रेष्ठ गोसेक का शिष्य स्मृतिशास्त्र का ज्ञाता एवं व्याकरण शास्त्र में पारंगत आमदेव था। यहां यह विचारणीय है कि प्रस्तुत अभिलेख के प्रायः सभी प्रारम्भिक श्लोक पूर्ववणित अर्जुनवर्मन् एवं देवपालदेव के अभिलेखों में ज्यों के त्यों मिलते हैं जो महाकवि मदन द्वारा रचे गये थे।
___ अभिलेख का ऐतिहासिक महत्व अत्यधिक है। दान के समय नरेश मंडपदुर्ग में स्थित था। संभवतः उसने अपनी राजधानी धार से हटा कर मंडपदुर्ग में बना ली थी। तत्कालीन राजनीतिक स्थिति के अध्ययन से इस परिवर्तन का कारण समझ में आ जाता है। १२५० ई. के पश्चात् दिल्ली सुल्तान नासिरुद्दीन के सेनापति बलबन ने चन्देरी व नरवर तक सफल आक्रमण किये थे जो परमार राज्य के उत्तरी छोर पर स्थित थे। दूसरी ओर यादव नरेशों के आक्रमण शुरू हो गये थे। यादव नरेश कृष्ण के अनेक अभिलेखों में मालवों पर आक्रमणों के विवरण मिलते हैं (एपि. इं., भाग २१, पृष्ठ २३ व पृष्ठ ३३२ आदि)। गुजरात के बाघेला बीसलदेव ने भी इसी समय धारा नगरी पर आक्रमण किया था (इं. ऐं., भाग ११, पृष्ठ १०७)। इस प्रकार निरन्तर अक्रिमणों से त्रस्त हो जयवर्मन् द्वितीय अथवा उसके अग्रज जैतुगिदेव ने राजधानी परिवर्तित कर मंडपदुर्ग में बना ली। सैनिक सुरक्षा की दृष्टि से पहाड़ियों से घिरा मंडपदुर्ग (मांडवगढ़) अधिक उपयोगी था।
भौगोलिक स्थानों में धार, मंडपदुर्ग व मालवा सर्व विख्यात है। रेवा नर्मदा का अन्य नाम है। कपिला इसकी एक सहायक नदी है। महुअड़ का उल्लेख पूर्ववणित सं. १२८२ के मांधाता अभिलेख (क्र. ६५) में प्रतिजागरणक के रूप में आ चुका है। बड़ौद आधुनिक बुरुड ग्राम है जो मांधाता से प्रायः १५ कि. मी. दूर है। अमरेश्वर तीर्थ मांधाता में है। दानप्राप्तकर्ता
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