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________________ ३२४ परमार अभिलेख (रामेश्वर), केदारेश्वर, ओंकारेश्वर, अमरेश्वर तथा महाकालेश्वर। यहाँ यह विचारणीय है कि शिवपुराण में उल्लिखित १२ ज्योतिलिंगों में से इस सूची में केवल ५ का ही उल्लेख किया गया है। अंतिम श्लोक क्र. ७१ में लेखक ने अपने विरुद्ध आचरण व दोषों के लिए क्षमा याचना की है। आगे का अभिलेख गद्यमय है। इसकी पंक्ति क्र. ५१-५३ में तत्कालीन कुछ विशिष्ट शैव आचार्यों के उल्लेख किये गये हैं। इनमें भोजनगर में स्थित श्री सोमेश्वर देव के महानिवास में निवास करने वाले नन्दियाड़ से देशान्तरगमन करके आने वाले पाशुपत आचार्य भट्टारक श्री भववाल्मीक, जिनके शिष्य भट्टारक श्री भावसमुद्र थे, तथा पंक्ति क्र. ५३ में पंडित भावविरिंचि के उल्लेख हैं । संभवत इन दोनों व्यक्तियों द्वारा अभिलेख की स्थापना की गई थी। अगली तीन पंक्तियों क्र. ५४-५६ से ज्ञात होता है कि चापल गोत्रीय पंडित गंधध्वज द्वारा अभिलेख लिखा गया था। वह विवेकर शि का शिष्य था जो स्वयं परमभट्टारक श्री सुपूजितराशि का शिष्य था। अन्त में उपरोक्त तिथि है। इस प्रकार प्रस्तुत अभिलेख का महत्त्व तत्कालीन धार्मिक परम्पराओं के अध्ययन में असाधारण रूप से विशिष्ट है। साथ ही साहित्यिक गतिविधियों व संस्कृत साहित्य के अध्ययन में भी अत्याधिक सहायक है। स्तोत्र के रचयिता हलायुध की एकात्मता कुछ आधारों को लेकर इसी नाम के शैव मतावलम्बी नवग्राम निवासी कवि से कर सकते हैं। तैलगु कवि पाल्कुरिकि सोमनाथ ने, जिसकी तिथि ११९० ई. है, उसका उल्लेख द्विपदवसव पुराण में किया है। प्रोफेसर शास्त्री का मत है कि उसकी समता कवि-रहस्य एवं अभिधान-रत्नमाला नामक ग्रन्थों के इसी नाम के लेखक से की जा सकती है। इस आधार पर उसकी तिथि ईसा की दसवीं शती के उत्तरार्द्ध में होना चाहिये (पूर्ण विवरण के लिए देखिये एपि. इं., भाग २५, पृष्ठ १७३)। प्रो. शास्त्री ने विचार प्रकट किया है कि कवि की तिथि ११वीं शती से पूर्व होना चाहिये। उसकी समता विख्यात हलायुध से नहीं की जा सकती जो बंगाल नरेश लक्ष्मणसेन की राजसभा में था एवं जिसने अनेक 'सर्वस्व' लिखे हैं। अभिलेख में उल्लिखित भौगोलिक नामों के दक्षिण राढ़ के अन्तर्गत नवग्राम की समता (श्लोक ६४) बंगाल राज्य के हुगली जिले में भुरशूत परगने में इसी नाम के ग्राम से की गई है। भोजनगर, जहाँ सोमेश्वर देवमठ नाम का आवासगृह था (पंक्ति ५१), की समता धारा नगरी से की जा सकती है। परन्तु श्री चक्रवर्ती के कथनानुसार भोज एवं उसके उत्तराधिकारियों के समय में धारानगरी का उल्लेख इसी नाम से किया जाता रहा है भोजनगर नाम से नहीं। अतः भोजनगर संभवतः भोपाल के पास स्थित इसी नाम का ग्राम रहा होगा जहाँ आज भी एक प्राचीन शिव मंदिर विद्यमान है। इसमें एक विशाल शिवलिंग स्थापित है। नदियाड़, जो शव आचार्य भवबाल्मीकी (पंक्ति ५१) का मूल स्थान था, का तादात्म्य कुछ कठिन है। परन्तु वर्तमान में गुजरात राज्य में बड़ौदा के पास इससे मिलते-जुलते नाम वाला नडियाद नगर स्थित है। (मूलपाठ) (छन्दः श्लोक १-६१ मदाक्रान्ता, श्लोक ६४-७१ अनुष्टुभ, श्लोक ६३ शार्दूलविक्रीडित) १. ऊँ नमः शिवाय॥ विघ्नं विघ्नन्द्विरदवदनः प्रीतये वोस्तु नित्यं वामे कूट: प्रकटित वृ (बृ)ह दक्षिणस्थूलदन्तः । य: श्रीकण्ठं पितरमुमया श्लिष्ट वामार्द्धदेहं दृष्ट्वा नूनं स्वयमपि दधावर्धनारीश्वरत्वं (त्वम्) ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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