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परमार अभिलेख
६१. मार्कण्ड के पुत्र, त्रिवेद मधुसूदन शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; सरस्वती स्थान से
आये, कठ शाखा के अध्यायी, हरितकुत्स ६२. गोत्री, आंगिरस अम्बरिष यौवनाश्व तीन प्रवरी, चतुर्वेद विजयी के पौत्र, चतुर्वेद अजयी
के पुत्र, चतुर्वेद अल्लि शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; ६३. मध्यदेश से आये, माध्यंदिन शाखा के अध्यायी, काश्यप गोत्री, काश्यप आवत्सार नैध्रुव
तीन प्रवरी, उपाध्याय नारायण के पौत्र, अग्निहोत्र ६४. जसदेव के पुत्र, दीक्षित लाहड़ शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; मध्यदेश से आये,
माध्यंदिन शाखा के अध्यायी, शांडिल्य गोत्री, ६५. असित देवल शांडिल्य तीन प्रवरी, अग्निहोत्र कटुक के पौत्र, दीक्षित पुरुषोत्तम के पुत्र,
आवसथिक नरसिंह शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; ६६. मध्यदेश से आये, माध्यंदिन शाखा के अध्यायी, मार्कण्डेय गोत्री, भार्गव च्यवन आप्नवान
और्व जामदग्न्य पांच प्रवरी, अग्निहोत्र छीतू के ६७. पौत्र उपाध्याय दामोदर के पुत्र, आवसथिक मार्कण्डेय शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग;
मध्यदेश से आये, माध्यंदिन शाखा के अध्यायी, भारद्वाज गोत्री, ६८. आंगिरस वार्हस्पत्य भारद्वाज तीन प्रवरी, द्विवेद नारायण के पौत्र, द्विवेक पद्मनाभ के
पुत्र, पाठक वायुदेव शर्मा ब्राह्मण के लिये ६९. एक १ भाग; मथुरा स्थान से आये, आश्वलायन शाखा के अध्यायी, कौत्स गोत्री, आंगि
रस अम्बरीष यौवनाश्व तीन प्रवरी, चतुर्वेद हरि के ७०. पौत्र, चतुर्वेद जनार्दन के पुत्र, चतुर्वेद राज शर्मा ब्राह्मण के लिये आधा १ भाग; हस्तिनुपुर
से आये, कौथुम शाखा के अध्यायी, पराशर गोत्री, ७१. पराशर शक्तृि वसिष्ठ तीन प्रवरी, पंचकल्पि कान्हड के पौत्र, पंचकल्पि कुमार के पुत्र,
पंडित कुसुमपाल शर्मा ब्राह्मण के लिये एक १ भाग; ७२. सारा ही ग्राम विशुद्ध रूप से निर्धारित चारों सीमाओं सहित, साथ में वृक्ष पंक्तियों
के समूह से व्याप्त, हिरण्य भाग भोग कर उपरिकर, सभी आय समेत, साथ में निधि
व गड़ा धन ७३. छः हल योग्य भूमि से युक्त (?) माता पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के
लिये चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक परमभक्ति के साथ शासन द्वारा जल हाथ
में लेकर दान दिया है, उसको ७४. मान कर वहां के निवासियों, पटेलों, ग्रामीणों द्वारा जो भी दिया जाने वाला भाग भोग कर
हिरण्य आदि, देव व ब्राह्मण द्वारा भोगे जा रहे को छोड़कर, आज्ञा सुनकर, सभी इन
ब्राह्मणों के लिये देते रहना चाहिये ७५. और इसका समान रूप फल मानकर हमारे व अन्य वंशों में उत्पन्न होने वाले भोक्ताओं
को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्म दान को मानना व पालन करना चाहिये । और कहा गया है--
सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब २ उसी को उसका फल मिला है ।।२४॥ __ अपने द्वारा दी गई अथवा अन्य के द्वारा दी गई भूमि का जो हरण करता है वह पितरों के साथ विष्ठा में कीड़ा बन कर रहता है ॥२५।।
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