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________________ २६७ उदयपुर अभिलेख सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है, अतः अपने २ काल में आपको इसका पालन करना चाहिये || २६ ॥ इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमल दल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये ॥ २७॥ ७९. संवत् १२८२वें वर्ष में भाद्र सुदि १५ गुरूवार । दूतक । श्री मु ८०. महासांधिविग्रहिक पंडित विल्हण की सम्मति से राजगुरु मदन हस्ताक्षर स्वयं महाराज श्री देवपालदेव के हैं । मंगल व महालक्ष्मी । | यह द्वारा लिखा गया । ये (६६) उदयपुर का देवपालदेव कालीन मंदिर स्तम्भ अभिलेख ( संवत् १२८६ = १२२९ ई.) प्रस्तुत अभिलेख विदिशा जिले में उदयपुर के शिवमंदिर के पूर्वी द्वार के दाहिनी ओर एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण । इसका उल्लेख १८८९ में इं. ऐं, भाग १८, पृ. ३४२; भाग २०, पृष्ठ ८३, क्र. २; ए. रि. आ. डि. ग. सं. १९७४ क्र. १२१; भण्डारकर के उत्तरी अभिलेखों की सूचि में क्र. ४८३; कीलहार्न की सूचि, क्र. २०७; ग. रा. अभि.द्वि., क्र. १०२ पर किया गया है । अभिलेख १४ पंक्तियों का है । इसका क्षेत्र ३८.१०५०.८ से. मी. है । स्तम्भ पर लगा। प्रस्तरखण्ड बीचोबीच टूट गया है, परन्तु इसस अक्षर क्षतिग्रस्त नहीं हुए हैं । प्रथम पंक्ति में भी ऊपर का कोना टूट जाने से तिथि का अन्तिम भाग लुप्त हो गया है । अभिलेख के अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नागरी है । अक्षरों की सामान्य लबाई २ से ३ सें. मी. है । बनावट में भी ये काफी भद्दे हैं। जर्जर हो जाने के कारण कुछ स्थलों पर पाठ साफ नहीं है । भाषा संस्कृत है एवं गद्य में है, परन्तु त्रुटियां से भरपूर है । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से श के स्थान पर स ख के स्थान पर ष का प्रयोग किया गया है। कुछ स्थानों पर अनावश्यक दण्ड लगे हैं । इनको पाठ में ठीक करने का प्रयत्न किया गया है । तिथि शुरू में संवत् १२८६ कार्तिक सुदि. . शुक्रवार लिखी है। इसमें तिथि का अंतिम भाग टूट गया है । संभवतः वह पूर्णिमा थी । इस प्रकार यह शुक्रवार २ नवम्बर, १२२९ ई. के बराबर बैठती है । इसका मुख्य ध्येय नरेश देवपालदेव के शासनकाल में राजकोष अधिकारी धामदेव द्वारा उदयेश्वर देव के मंदिर के निमित्त ४ बिस्वे भूमि के दान का उल्लेख करना है । अभिलेख का महत्व इस कारण है कि यद्यपि देवपालदेव प्रस्तुत अभिलेख की तिथि से बहुत पहले ही धार के राजसिंहासन पर आरूढ़ होकर पूर्ण राजकीय उपाधियों का उपयोग करने लग गया था, तथापि भोपाल क्षेत्र में, जहां से उसने अपने शासन का श्रीगणेश किया था, अब भी कनिष्ट महाकुमारीय उपाधि से विख्यात था। दूसरे, प्रस्तुत अभिलेख से उसके शासन की अगली तिथि ज्ञात होती है। तीसरे, प्रदत्त भूमि का प्रमाण ४ बिस्बे लिखा है जो वर्तमान में एक बीघा भूमि का बीसवां भाग होता है । अतः मानना होगा कि यह प्रमाण भोपाल क्षेत्र में स्थानीय रूप से चालू था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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