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भिलसा अभिलेख
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११.
१०. - - - - गृह णासि पुण्यानि च महात्मनां (नाम्) ।
न तथा सित (ते) जांसि वियतोभ्युद्गते त्वयि ।।[२१] तमो भेत्तुं यथा वा (बा)ह यं तथान्तरमपीशिषे । तवोदये यथा रात्रिस्तथा निद्रापि नश्यति ।।[२२॥] न नौति त्वां [द्वा]
[दशात्म]गुणसंपन्नुनूषया । इनोस्यर्कोसि सूर्योसि पर्याप्तेत्येव ते स्तुतिः ।।[२३।।] कृतिरियं महाकवि चक्रवति पंडित श्री छित्तपस्थ [11] लेखक - - - १२. - - - - [मं]गलं [महाश्रीः ।। कारितेयं दंडनायक-श्रीचन्द्रेण ।।छ।।
(अनुवाद) ३. - - - - तृष्णा से रहित लिखा। ४. - - - - तू अन्य तेजस्वी के नाम को भी सहन नहीं करता है । ५. (याचक के रूप में) अगस्त्य मुनि ने चुलुक में सातों समुद्रों के जल को पी लिया, उसी प्रकार
वैसे ही अन्य भी (याचक) हैं। इसी प्रकार तेरी लालिमा (अनुराग) के बहाने से अपना पोषण
करने के हेतु मानो भिक्षा की याचना कर रहे हैं। ६. तेरी कांति से ईर्ष्या रखने वाले राहू का तेरे अनुज (विष्णु) ने शिरच्छेदन किया तो मस्तक
रूपी होकर भी वह राहू अपने दुष्ट शत्रु (सूर्य) के साथ यातना का कौशल दिखाता है। ७. भक्तजनों के विषय में तेरा तेज अत्यन्त स्नेहयुक्त है, (परन्तु) क्रूर व्यक्तियों के साथ तेरा तेज
उग्र है। इस प्रकार भक्त के भाव को ध्यान में रखने वाला तेरा तेज चन्द्र व अग्नि के समान है। ८. शेषनाग के फण पर स्थित मणियों में, समुद्र के मोतियों में तथा आकाश के तारागणों में जो
चमक है सो तेरी ही है। ९. तेरी ज्योति चन्द्रमा में चांदनी के रूप में, क्षितिज में संध्या के रूप में और मेघमण्डल में इन्द्र
धनुष के रूप में गाई जाती है। १०. तेरी क्रांति रूपी केसर का चन्दन पश्चिम दिशा रूपी नायिका के मस्तक पर तिलक के समान,
चरणों में लाक्षाराग, कपोलों पर लालिमा एवं स्तनतट पर केसर चन्दन के समान शोभायमान
हो रही है। ११. राहू तेरे को ग्रास नहीं करता, (परन्तु) चन्द्रमा में क्रीड़ा करने को तत्पर हो जाता है; क्योंकि
तू कमलिनी के भीतर छुप जाता है। प्रेम की तो ऐसी ही कुटिल गति होती है। १२. तू अविकसित चन्द्र-विकासिनी कमलिनी पर उतना अनुग्रह नहीं करता जितना (सूर्य
विकासिनी) कमलिनी पर । निश्चय ही शब्द से तू विकर्तन है परन्तु अर्थ से विकत्थन है। १३. हे सूर्य, (भले ही दक्षिणी) कमलिनी का आलिंगन कर, अपनी कांति से पूर्व दिशा का चुम्बन
कर, उत्तर दिशा को जा अथवा पूर्व-पश्चिम दिशाओं को जा, (फिर भी) दिनश्री तुझ को
नहीं छोड़ती है। १४. हे सूर्य, प्रातःकाल में जो दिनश्री ने तुझे स्वयं वर लिया है, इस प्रकार प्रकाशमान तुझ को दिन
के अन्त में भी अनुसरण कर रही है। १५. वह ऊषा (दिनश्री) रूपी पत्नी प्रातःकाल में पहिले ही जाग जाती है व रात्रि के बाद में सोती __ है। अहो, यह कितना आश्चर्य है कि ऊषा ने भी सत्गृहिणी का व्यवहार किया है।
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