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________________ १५२ परमार अभिलेख पंडित प्रभाकर को पांच हल भूमि दान में दी गई थी। अतः उसको प्रस्तुत दानभूमि निर्धारण करते समय छोड़ दिया जावे । दान देते समय नरेश चरसटिका ग्राम में स्थित था। पंक्ति क्र. १७-१८ में दान की दो हल भूमि को दोनों ओर-लम्बाई व चौड़ाई में ४२ बार नापा गया था (उभयद्विचत्वारिंशन्माप्यकेन) । नापने के लिए ९६ पर्व का दण्ड प्रयोग में लाया गया था जो एक हल नापने की प्रथा थी (भूमिनिवर्तन प्रथा)। इस प्रकार इस प्रमाण की भूमि एक हल द्वारा एक मौसम में सुगमता से जोती जा सकती थी। वास्तव में बांस के डण्डे से भूमि नापने की प्रथा वर्तमान मालवा में प्रचलित है। यदि पर्व को अंगुल मान लें एवं अंगुल को ३/४ इंच के बराबर मान लें। (देखिये मार्कण्डेय पुराण, भारतीय संस्करण, ४९, पृष्ठ ३८-३९) तो डण्डे की कुल लम्बाई (९६४ ३/४ =) ७२ इंच अथवा ६ फीट होगी। इसको ४२ बार नापने पर यह लम्बाई २५२ फीट होगी। चौड़ाई भी इतनी ही होगी। इस प्रकार उक्त भूमि का कुल क्षेत्र (२५२४ २५२= ) ६३५०४ वर्ग फीट अथवा प्रायः २० बीघा होगा। भोजदेव के कालवन अभिलेख (क्र. १८) के समान यहां भूमि का नाप ४०x४० =१६०० वर्ग दण्ड ही है। शेष २ दण्ड संभवतः खेत की मेढ़ के लिए छोड़ दिए गये। अभिलेख का महत्व इस तथ्य में है कि भूदान नरेश नरवर्मन द्वारा अपने पिता उदयादित्य की वार्षिकी पर दिया गया था। इससे ज्ञात होता है कि उदयादित्य की मृत्यु अभिलेख की तिथि से ठीक एक वर्ष पूर्व हो चुकी थी। ___ भौगोलिक स्थानों में इंगुणीपद्र का तादात्म्य वर्तमान इंग्नौद से किया जा सकता है जो रतलाम के पास छोटी रेल लाईन पर ढोढर स्टेशन से ५ मील दक्षिण-पूर्व में स्थित है। संवत् ११९० के कच्छपघात वंशीय अभिलेख में इस को इंगणपद्र कहा गया है (भण्डारकर सूचि क्र. २२९) । रेवा नदी वर्तमान नर्मदा ही है। कुविलारा वर्तमान में वह नदी है जो ओंकारेश्वर के पास नर्मदा में मिलती है। भगवत्पुर, जिसको प्रतिजागरणक कहा गया है, चम्बल पर स्थित भगोर है जो इंग्नौद से २५ कि. मी. उत्तर-पूर्व की ओर स्थित है। (वेस्टर्न स्टेट गजेटियर, मालवा, पृष्ठ ३४८) । दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण का मल स्थान दक्षिणापथ में अद्रियलविदा का तादात्म्य सरल नहीं है। दानस्थल मालापूर ग्राम की दो संभावनायें हैं--प्रथम भगोर से ४० कि. मी. उत्तरपूर्व में मालखेड़ा, दूसरे दक्षिण में मालापुर है। चरमटिका (?) जहां दान के समय नरेश स्थित था, का पाठ ही निश्चित नहीं है। अतः इसके समीकरण का प्रश्न ही अधूरा है। (मूल पाठ) १. ओं स्वस्ति [1] ज्योभ्युदयश्च ।। जयति व्योम केशोसौ यः सर्गाय वि (बि) भति ता (ताम्) । एंदवी शिरसा लेखां जग ___ द्वी (ट्टी) जां कुराकृतिम् ।। [१] तन्वन्तु वः स्मरारातेः कल्याणमनिशं जटाः । कल्पान्त समयोद्दाम तडिद्वलयपिङ्ग लाः ।। [२] परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री सिंधुराजदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-म४. हाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री भोजदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर५. श्री उदयादित्यदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री नरवर्मदेवः कु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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