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पिपलियानगर अभिलेख
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हरिहरनिवास द्विवेदी द्वारा सम्पादित ग्रन्थ 'ग्वालियर राज्य के अभिलेख' क्र. ९५ पर इसका उल्लेख है । ताम्रपत्र वर्तमान में अज्ञात है ।
ताम्रपत्रों के आकार वजन, पंक्तियां, गरूड़ चिन्ह, अक्षरों की स्थिति व बनावट आदि के बारे कुछ भी ज्ञात नहीं है । भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है । इसमें २३ श्लोक हैं, शेष गद्य में है । अभिलेख की तिथि मध्य में दो बार शब्दों व अंकों में, एवं अन्त में पुनः अंकों में इस प्रकार तीन बार लिखी हुई है । यह संवत् १२६७ फाल्गुन सुदि १० गुरूवार है, जो गुरूवार, २४ फरवरी, १२१० ईस्वी के बराबर है । इसका मुख्य ध्येय अर्जुनवर्मन् द्वारा शकपुर प्रतिजागरणक में पिडिविडिग्राम के दान करने का उल्लेख करना है। दान के समय नरेश मंडप दुर्ग में स्थित था । दान का अवसर अभिषेक पर्व था । दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण मुक्तावसु स्थान से आया, वाजसनेय शाखा का अध्यायी, काश्यप गोत्री,
सार ध्रुव तीन प्रवरवाला, आवसथिक देलण का प्रपौत्र, पंडित सोमदेव का पौत्र, पंडित जैसिंह का पुत्र पुरोहित गोविन्द शर्मा था ।
दानकर्ता नरेश की वंशावली १५ श्लोकों में वर्णित है । इनमें भोजदेव, उदयादित्य नरवर्मन्, यशोवर्मन्, अजयवर्मन् तथा विध्यवर्मन् की प्रशंसा है । श्लोक १२ में विध्यवर्मन् द्वारा गुर्जर नरेश को हराने का उल्लेख है । श्लोक १४-१५ में सुभटवर्मन् की प्रशंसा व श्लोक १५ में उसके गुर्जरपत्तन को आतंकित करने का उल्लेख है । श्लोक १६-१९ में अर्जुन (वर्मन् ) की प्रशंसा एवं श्लोक १७ में उसके द्वारा जयसिंह (चौलुक्य) को हराने का उल्लेख है । इस प्रकार गुजरात के नरेशों से संघर्षों के अतिरिक्त अन्य ऐतिहासिक तथ्य न होकर, सभी नरेशों की अलंकारिक भाषा में सामान्य प्रशंसा है । नरेशों के नामों के साथ कोई राजकीय उपाधियां नहीं हैं । परमार राजवंश का उल्लेख श्लोक क्र. ५ में है ।
अभिलेख महापण्डित श्री विल्हण की सम्मति से राजगुरू मदन द्वारा रचा गया । महापण्डित विल्हण नरेश अर्जुनवर्मन् का सांधिविग्रहक सचिव था ( आगे अभिलेख क्र. ६० ) । कवि आशाधर कृत धर्मामृत के अन्त में विल्हण को श्री विध्यभूपति का सांधिविग्रहक लिखा है ( सन् १८८३- ८४ में संस्कृत हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज संबंधी डा. भण्डारकर की रिपोर्ट, पृष्ठ ३९१ ) जो अर्जुनवर्मन् का पितामह विंध्यवर्मन् था । इस प्रकार नरेश विध्यवर्मन् व अर्जुनवर्मन् दोनों के समय में विल्हण सांधिविग्रहक के पद पर आसीन था । राजगुरू मदन द्वारा रचित पारिजातमंजरी नाटिका धार में एक प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण प्राप्त हुई है । इस प्रकार वह अर्जुनवर्मन् के सभी प्राप्त अभिलेखों का रचयिता था । परन्तु प्रस्तुत अभिलेख के कुछ प्रारम्भिक श्लोक ही उसके द्वारा लिखे गये प्रतीत होते हैं, क्योंकि अर्जुनवर्मन् के अन्य अभिलेखों एवं देवपालदेव के अभिलेखों में प्राय: इन ही श्लोकों की पुनरावृत्ति की गई है ।
ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत अभिलेख का पर्याप्त महत्व है । प्रथमतः इसके माध्यम से अर्जुनवर्मन् तक की परमार राजवंशावली ज्ञात होती है । दूसरे, इसमें उल्लिखित महापण्डित विल्हण एवं राजगुरू मदन के समकालीन ग्रन्थों में भी उल्लेख प्राप्त होते हैं जिनके आधार पर उनके महत्व व विद्वत्ता पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। साथ ही श्लोक क्र. १८ में अर्जुनवर्मन् के साहित्य प्रेम व विद्वानों को आश्रय प्रदान करना भी प्रमाणित होता है। तीसरे, यह भी ज्ञात होता है कि इस समय तक परमार नरेश न केवल मालव राज्य की पुनर्प्राप्ति में सफल हो गये थे, वरन् गुजरात के कतिपय भागों पर सफल आक्रमण भी कर रहे थे। गुजरात में चौलुक्य शक्ति का ह्रास ११७२ ई. में कुमारपाल की मृत्यु से शुरु हो गया । उसका उत्तराधिकारी उसका भतीजा अजयपाल ( ११७२ - ७६ ई.) हुआ । परन्तु उसने चहूं ओर शत्रु पैदा कर लिये, इस कारण उसका वध कर दिया गया। फिर मूलराज द्वितीय
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