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परमार अभिलेख
१२४३ ई. में नरेश जयतुगिदेव के शासनकाल में पूर्ण किये थे । इस प्रकार जयसिंह - जयवर्मन् द्वितीय १२४३ई. व १२५५ ई. के मध्य किसी समय मालव राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ होगा । उसके बड़े भाई जयतुगिदेव के समय मालवराज्य पर तीन ओर से -- दक्षिण में यादव कृष्ण, पश्चिम में वघेल नरेश एवं उत्तर में बलबन के आक्रमण हुए थे । परन्तु प्रस्तुत अभिलेख से अनुमान होता है कि जयसिंह - जयवर्मन् साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखने में सफल हो सागर क्षेत्र को अपने राज्य में मिला सका । यह क्षेत्र संभवत: चन्देलों से प्राप्त किया था (मिराशीका. ई. ई., भाग ४, पृष्ठ १०८ ) । प्रस्तुत अभिलेख जयसिंह जयवर्मन् का प्रथम प्राप्त अभिलेख है । भौगोलिक स्थानों में उपरिहाडा मंडल संभवत: राहतगढ़ के आसपास का प्रदेश रहा होगा । अन्य कोई नाम पढ़ने में नहीं आता ।
(मूलपाठ)
१.
२.
सिद्धि: ।। संवत् १३१२ वर्षे भाद्रपद सु ७ सो [ मे श्री [द्वारायां] महाराजाधिराज श्री मज्जय[सं] ३. [ह]देव विजयराज्ये उपरिहाडा मं[ड]ले राज श्री. ४. . हा व्यापारे तस्मिन् काले वंदना ( ? ) धिकारे ५. [तमिर्जी ?] दितपत्रकं समभिलिख्यते यथा
६.
( ७० )
अनु का जयसिंहदेव द्वितीय का मंदिर स्तम्भ अभिलेख
( संवत् १३१४ = १२५७ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख राजस्थान के कोटा जिले में अनु कस्बे में गङ्गच्छ मंदिर में एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है । इसका उल्लेख प्रो. रि. आ. स. इं. वे. स. १९०५ -६, पृष्ठ ५९ तथा भण्डारकर की उत्तरी अभिलेखों की सूचि क्र. ५५४ पर है ।
अभिलेख में ६ पंक्तियां उत्कीर्ण है । इसका आकार ३१२३ सें. मी. है । इसके ऊपर तीन आकृतियां एवं नीचे स्त्री व गर्दभ की आकृतियां बनी हैं। अंतिम पंक्ति एक-तिहाई है । अभिलेख की स्थिति ठीक है परन्तु लापरवाही से उत्कीर्ण है ।
अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नागरी है । अक्षर ३ से ३३ सें. मी. लम्बे हैं । भाषा संस्कृत एवं गद्य में है । इस पर बोलचाल की भाषा का प्रभाव है । शब्द विन्यास की दृष्टि से श के स्थान पर स ह के स्थान पर घ, यो के स्थान पर जो उत्कीर्ण है । कुछ शब्द ही गलत हैं । माता शब्द में विभक्ति का लोप है । कुछ ऐसे क्रियापद हैं जो संस्कृत भाषा में ज्ञात नहीं हैं । इसका लेखक कोई निकृष्ट कोटि क व्यक्ति था ।
तिथि किसी विवरण के बगैर संवत् १३१४ लिखी है जो १२५७ ई. के बराबर है । अभिलेख जयसिंहदेव द्वितीय के शासन काल का है जो परमार वंशीय नरेश है । इसका ध्येय महाकवि नारायण को पंवीठ प्रतिपत्ति के अन्तर्गत म्हैसड़ा ग्राम दान में देने का उल्लेख करना है । इसके नाम के साथ चक्रवर्ती ठाकुर उपाधियां लगी हैं ।
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