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________________ दो शब्द विगत वर्षों में स्नातकोत्तर महाविद्यालय, धार में स्थानान्तरण होने पर मेरा ध्यान परमार राजवंश की ओर आकर्षित हुआ। वहाँ स्थित भोजशाला में कतिपय प्राकृत अभिलेखों की-प्राप्ति का समाचार मिला । स्थानीय विद्वानों से सम्पर्क करने पर कुछ अन्य अभिलेखों के सम्बन्ध में भी सूचना मिली खोजबीन करने पर ज्ञात हआ कि परमारों के सम्बन्ध में कोई विशेष कार्य नहीं हआ है। लगभग ५० वर्ष पूर्व डी. सी. गांगुली ने तथा प्रायः १५ वर्ष पूर्व प्रतिपाल भाटिया ने इनके सम्बन्ध में लिखा था। तिस पर भी राजवंशीय अभिलेखों का कार्य पूर्णतः अछूता रहा । अतएव मैंने अभिलेखों के संकलन एवं समालोचनात्मक अध्ययन का कार्य हाथ में लिया। अभी तक ८५ अभिलेख संस्कृत में प्राप्त हो चुके हैं । इनमें से कुछ अभिलेख उन्नीसवीं शताब्दी म मिले थे, कुछ विगत वर्षों में खोजे गये परन्तु कुछ वर्तमान में मिले । उनकी प्रतिलिपियां प्राप्त कर मूलपाठ तैयार किये एवं शब्दशः हिन्दी अनुवाद किया। अभिलेखों के विवरण का क्रम निम्न प्रकार है:- प्राप्ति का विवरण, पूर्व उल्लेख, ताम्रपत्रों की संख्या अथवा प्रस्तरखण्ड की स्थिति, आकार, ताम्रपत्रों का वजन, अभिलेख की दशा, अक्षरों का आकार, अक्षरों की दशा, भाषा, लिपि, वर्णविन्यास ध्येय, दान प्राप्तकर्ता, दान का विवरण, तिथि एवं उसका समीकरण, वंशवक्ष, अभिलेख का विवरण, ऐतिहासिक महत्व, भौगोलिक नाम तथा उनका तादात्म्य । प्रस्तुत संकलन में प्राकृत अभिलेखों को छोड़ दिया गया है। वे अत्यन्त क्षतिग्रस्त हैं । साथ ही उनसे प्राप्त ऐतिहासिक सूचना अत्यन्त न्यून है। अभिलेखों के समीक्षात्मक अध्ययन से अनेक नवीन तथ्य सामने आते हैं। भोज महान के उत्तराधिकार की समस्या में जयसिंह प्रथम एवं उदयादित्य का संघर्ष तथा उदयादित्य के भोज के साथ सम्बन्ध अब अधिक स्पष्ट हो गये हैं । उदयादित्य के पश्चात् उसका बड़ा पुत्र लक्ष्मदेव उसका उत्तराधिकारी माना जाता था। परन्तु नवीन अभिलेखों की प्राप्ति से यह निश्चित होता है कि लक्ष्मदेव की मृत्यु अपने पिता के शासनकाल में ही हो गई थी। अतः उसके शासन करने का प्रश्न ही नहीं उठता। उसका दूसरा पुत्र नरवर्मन उदयादित्य का उत्तराधिकारी हुआ। तीसरे पुत्र जगदेव के दो अभिलेख बरार क्षेत्र से प्राप्त होते हैं । वह क्षेत्र परमार साम्राज्य से बाहर था । संभव है कि जगद्देव दक्षिण के चालुक्यों, जो उसके सम्बन्धी थे, का प्रान्तपति रहा हो । अब परमार महाकुमारों के उत्तराधिकार एवं क्रम को निर्धारित करने में सुविधा हो गई है। इसी प्रकार राजवंशीय नरेशों का शासनकाल निश्चित करना भी सरल हो गया है । अभिलेखों के प्राप्त स्थलों के आधार पर परमारों के साम्राज्य का विस्तार ठीक-ठीक ज्ञात हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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