SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३४ परमार अभिलेख ६. हे भगवन्, आप वाणी के अधिपति होकर साथ ही समस्त ज्ञान सम्पति से युक्त हैं। मुझ जैसे अल्प ज्ञान शक्ति वाले की स्तुति रचना से आपको कैसे संतोष हो सकता है, यह जान कर आपकी स्तुति करने में मेरी वाणी कुण्ठित हो रही है, तथापि भक्ति के आवेश से स्तोत्र वाणी निकल ही रही है, मैं क्या करूं। . ७." हे भगवन्, जो आपका परम तत्व उपाधि रहित वाणी और मन से भी परे है, जिसका वर्णन करने के लिये ब्रह्मादिकों की भी वाणी कुण्ठित हो गई है, परन्तु जो आपका - नवीन पार्वती-प्रिय यह स्वरूप है इसका भक्तिपूर्वक वाणियों से पूजन करता हूं। ८. हे शंभु, अन्य भक्तों ने अमृतस्रावि वाणी विलासों से आपका विस्तृत स्तोत्र रचा, (इस कारण) क्या मैं अपने वचनों से आपकी स्तुति करना त्याग दूं? अन्यों के द्वारा सुवर्ण कमलों से पूजित आपके पादपीठिका का पूजन दूसरा भक्त भक्ति से आंकड़े के पुष्पों से पूजन नहीं करता क्या ? ९. हे भगवन्, त्रैलोक्य गुरु आपके उन आठमूर्ति भेदों को मैं प्रणाम करता हूं जो जल- रूप, आकाश रूप, कमलों का मित्र सूर्य रूप, कमलों का शत्रु चन्द्ररूप, हविद्रव्य को दहन करने वाला यजमान रूप, हविद्रव्य को ग्रहण करने वाला अग्नि रूप, गंध को उत्पन्न ... करने वाला पृथ्वी रूप तथा गन्ध को बहाने वाला वायुरूप है। . . . . . १०. इस संसार में निश्चित् उत्पन्न दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त करके कोई पुण्यवान आपका भजन करता है और कोई अन्य देव का भजन करता है। देवयोग से उन्नत पर्वत पर चढ़ने पर भी एक तो महान रत्न को धारण करता है अन्य बड़े काम को प्राप्त करता है। ११. हे भगवन् , जो भक्ति से अर्हत् अथवा सुगत रूप से भजन करते हैं, उन्हें तू इच्छित फल प्रदान करता है, यह योग्य ही है। मार्ग चल कर थका हुआ व्यक्ति कुछ भी नाम लेकर यदि शीतल जल पीता है तो क्या वह तृप्ति प्राप्त नहीं करता। १२. सूर्यादि ग्रह-परिवार नित्य उदित होकर अस्तंगत होता है। दिवस रात्रि पक्ष मास भदतु रूप यह काल सब कुछ तेरी प्रेरणा के बगैर नहीं चलता। इस कालचक्र को चलाने में तेरे बगैर अन्य किसी का सामर्थ्य नहीं है। १३. . हे प्रभु, जिस पर एक बार तेरा दृष्टि प्रसाद हो गया उसके भवन में कामधेनु धेनु के समान निवास करती है, क्रीडाङ्ग में कल्पवृक्ष वृक्ष के समान स्थित रहता है तथा हाथ में बंधा हुआ लाख का रक्षामणि (तावीज) चिन्तामणि के समान हो जाता है। १४. हे त्रिनयन, मैंने आपके भूषणों के संयोजन को अच्छी तरह पहचान लिया है। चंचल गंगाजल मस्तक प्र चन्द्र स्थापित किया। विषप्राशन से नीलकण्ठ में क्रूर भुजंग को स्थापित किया। चंद्रिका के समान गौर शरीर पर भस्म का अंगराग लगाया। १५. हे शंभ, आपका यह नैसर्गिक भूषाविधि अलौकिक सौंदर्य धारण कर रहा है। ललाट पर नेत्र सुन्दर तिलक की शोभा धारण कर रहा है। जटाजूट में गंगा मालती पुष्पमाला की शोभा धारण कर रही है। कण्ठ में नीलचिन्ह कस्तूरीपत्र रचना की शोभा धारण कर रहा है । . १६... जिस कामदेव ने अपने कठोर प्रभाव से त्रैलोक्य को जलाया, हे त्रिनयन, आपने अपने दृष्टि पात से उसको भी भस्म कर दिया; और यह योग्य ही है कि जो दूसरों को दुःख देने वाला है उस पर प्रभुओं का क्रोध-दण्ड अवश्य ही गिरता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy