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________________ मान्धाता अभिलेख अज्ञाना[द्] ज्ञानतो वापि यद्विरुद्धमनुष्ठितं (तम्)। तत्सर्वं पशुभूतस्य क्षन्तव्यं कारणेश्वर ॥[७१।।] ५१. स्वस्ति [1] श्री भोजनगरे श्री सोमेश्वरदेव मठनिवासि नंदियड-विनिर्गतं (तः) प्रणामगोत्र यम नियम संज (4) म स्वाध्याय ध्यानानुष्ठानरत परमपाशुपताचार्य भट्टारक श्रीभव वाल्मीक[:] श्री अमरेश्वरदेवो (वस्य) त्रैलोक्याधिपतिः (तेः) ध्यानपुण्य स.....एतत् (च) सि (शि)ष्य इ[ष्टाधि] क प्रदानरत त्रिः (त्रि) कालसंध्य (ध्या) ५२. समधिकरण गुरु पारंपर्य विधानयुक्त[:] श्री अमरेश्वरदेवपादपंकजभ्रमराध्वनि (?) पथस्रा (श्रा)न्त तपोधनाभ्यागत लय . . .संतापः ५३. श्री अमरेश्वरदेव वीक्षणमूत्ति सदानिवासी भट्टारक श्री भावसमुद्रः ।। पंडित भाव विरिचि[:] प्रणमति शिवः (वम्)। ५४. ओं स्वस्ति [I] श्री अमरेश्वरदेवस्यायतने त्रैलोक्य विश्रुत[]स्थाने देव दानव दु[जय] देवगुरुन (त)पोधात (ध्यान) सु(शुश्रूषारत परमभट्टारक श्री सुपू५५. जितरासि (शिः) [] एतत्सि (शि)ष्य विवेकरासि (शि:) [i] पुनः तस्य सिस्य (शिष्येण) चपलगोत्र विनिर्गत (तेन) सहजभक्ति शान्तमूर्ति ५६. पण्डित गान्धध्वजेन परमभक्त्या महिम्न हलायुधस्तुतिं आत्मस्यार्थे स्वयं लिखितमिति ।। सम्ब (संव)त् ११२० कार्तिक वदि १३(1) मङ्गलं महाश्रीः ।। ॥ ॥ (अनुवाद) ओं नमः शिवाय । १. वह गजवदन श्री गणेशजी विघ्न को नष्ट करते हुए सदा तुम्हें प्रसन्नता प्रदान करे। जिस श्री गणेशजी ने अपने पिता श्री नीलकण्ठ के अर्धशरीर में पार्वती सम्मिश्रित अर्धनारी नटेश्वर रूप में देखकर स्वयं ने भी वाम खण्डित एवं दक्षिण सम्पूर्ण दन्त के रूप में अर्धनारीश्वरत्व धारण कर लिया। २. जो पुत्र अपने जन्मदाता पिता के गुणों से अधिक उत्कर्षशाली गुणों को धारण करता है वह पूत्र स्तुत्य होता है, तदनसार अपने पिता शिवजी के पांच मखों से अधिकता की इच्छा रख कर छः मखों को धारण करने वाले षणमख कातिकेय तुम्हारा रक्षण करें। ३. वह केवल ज्ञानस्वरूप एक देव शिव एवं वह देवी पार्वती, इन की जयजयकार हो । ये तीनों भुवन जिनकी विभूति के प्रपञ्च हैं, जो शिव पार्वती किसी प्रकार भेदरहित संबंध भोग से अर्ध नारी नटेश्वर रूप में मिश्रित होकर जगत को जन्म देने हेतु बीज रूप हुए, उनको मैं प्रणाम करता हूं। ४. आद्य स्वयंभू ब्रह्मदेव अकेला समस्त जगतों का निर्माण करने वाला प्रसिद्ध है। इन जगतों का पालन करने वाला वैलोक्य गुरु विष्णु प्रसिद्ध है। परन्तु उन दोनों अतुल महिमाओं का प्रलय काल में संहार करने वाले महाकाल के समान अन्य कौन हो सकता है। ५. हे भगवन् ! आपके निःसीम स्वरूप को वर्णन करने की इच्छा है। और यह मन किंचित् पदों के ज्ञानमात्र से स्तब्ध हो गया है। हे त्रिनयन, यह (अपनी स्थिति को) जान आपके गुण वर्णन करने की भक्ति से स्वयं अपनी आत्मा में ही स्तुति करने की धृष्टता की कमर कस ली है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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