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________________ उज्जैन अभिलेख १४१ हो। इस प्रकार वर्णनाग-कृपाणिका स्वयं उसी के द्वारा रची गई। नागपुर प्रशस्ति (क्रमांक ३६) के श्लोक ५६ के अनुसार नरवर्मन उस प्रशस्ति का रचयिता था। अतः संभव है कि प्रस्तुत अभिलेख का लेखक भी नरवर्मन रहा हो। उसने पितृभक्ति एवं आदर प्रदर्शन हेतु अपने पिता उदयादित्य के नाम पर उसको प्रचलित कर दिया। यह विचारणीय है कि श्लोक ८५ उज्जैन के साथ, धार व ऊन के नागबंधों में, श्लोक ८६ उज्जैन व धार तथा श्लोक ८७ केवल उज्जैन में ही प्राप्त हैं। ___ अभिलेख की पंक्ति १८-२८ के बराबर तथा नीचे में वर्णबंध उत्कीर्ण है। नाम के अनुरूप यह वर्णबंध एक नाग तथा खङ्ग का सम्मिश्रण है। नाग का मुख खड्ग के चौड़े हत्थे की आकृति से ज्ञात होता है। और उसका घुमावदार लम्बा शरीर खड्ग के पैने भाग से ज्ञात होता है जो नौ विभिन्न घुमावों के आधार पर छोटे छोटे चौकोर बनाता हुआ, अन्त में पूंछ के पास पतला नोकदार हो गया है। खड्ग के हत्थे वाले व कांटे वाले भाग में अ से लेकर औ तक १४ स्वर हैं। उसके नीचे वाले भाग में ह य व र ल व्यंजन हैं। फिर खड्ग के मध्यवर्ती भाग को घुमाओं के द्वारा समान आकार के २५ वर्गों में विभक्त कर दिया गया है जिनमें अपने अपने वर्गों के अनुसार क से लेकर म तक २५ स्पर्श हैं। इनके ठीक नीचे घुमावों के आधार पर बने त्रिकोणीय भाग की दाहिनी भुजा में ४ ऊष्म और इसके नीचे अयोगवाह, अर्थात् उपध्यानीय जिह्वामूलीय अनुस्वार व विसर्ग हैं। परन्तु इस त्रिकोण की बाईं भुजा के अक्षर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए हैं। फिर भी जो कुछ दिखाई देता है उसके एवं इसी प्रकार के धार में प्राप्त वर्णनाग-कृपाणिका के आधार पर इसमें संभवतःक्ष त्र ज्ञ और ओं हैं जिनसे आधुनिक देवनागरी अक्षर माला का अन्त होता है। वैसे एक अन्य संभावना यह भी है कि इसमें ४ यम रहे हों। - खड्ग का अंतिम भाग, जो नाग की पूंछ के समान है, सीधा ऊपर उठ कर उसके बराबर ही नीचे की ओर बना हुआ है, इस प्रकार यह एक चिमटे के समान दाहिनी व वाम भुजाओं में विस्तृत हो गया है। इन दोनों भुजाओं को ३९ बराबर चौकोरों में विभाजित किया गया है । वाम भुजा में ऊपर से नीचे की ओर २१ चौकोरों में संज्ञा के सात रूपों तीनों वचनों में जैसे स औ अस् अम् औ अस् आदि का उल्लेख है। इसी प्रकार दाहिनी भुजा में ऊपर से नीचे की ओर १८ चौकोरों में क्रियाओं के उभयपद धातुओं जैसे ति तस् अन्ति, सि, थस् थ मि वस् मस्, ते इते अन्ति से इथे ध्वे आदि का उल्लेख है । प्रस्तुत वर्णनाग-कृपाणिका में यह महत्वपूर्ण तथ्य उजागर होता है कि इसमें उल्लिखित अक्षरमाला प्रायः पाणिनि की अष्टाध्यायी के १४ माहेश्वर सूत्रों पर आधारित है। इसीलिए ह का उल्लेख दो बार किया गया है--एक तो ४ अन्तस्थों के प्रारम्भ में और दूसरी बार ४ ऊष्मों के साथ अन्त में । यदि ऊपर से नीचे को पढ़ा जावे तो इसमें २५ स्पर्श भी मिलते हैं जो यद्यपि पूर्णतः सूत्रों के अनुसार उसी क्रम में नहीं हैं तथापि अपने स्थानों व प्रत्ययों की दृष्टि से प्रायः उसी क्रम में हैं। इस प्रकार संक्षेप में १४ माहेश्वर सूत्र, ३९ सुप् व तिण् प्रत्ययों सहित संस्कृत व्याकरण के प्रारम्भिक प्रमुख सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है जो इस हेतु अनिवार्य माने जाते हैं। पुनः शब्दशास्त्र का पूर्ण ज्ञान, जो व्याकरण के समकक्ष ही हैं, इसके समुचित अध्ययन के लिए अनिवार्य है का भी बोध करवाता है । इस दृष्टि से प्रस्तुत नागबंध सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य व उस पर आधारित ज्ञात हेतु ही रचा गया है। एक पौराणिक कथा के अनुसार सम्पूर्ण साहित्य व दर्शन के निर्माता स्वयं महेश्वर हैं । सृष्टि निर्माण के प्रारम्भ में स्वयं महेश्वर ने ही सनक सनन्दन आदि चार ऋषियों को चौदह सूत्र सिखलाए थे । ये १४ सूत्र समस्त ज्ञान व शब्द ब्रह्म के स्रोत हैं, इसी कारण इनको माहेश्वर सूत्र कहा जाता है। प्रस्तुत अभिलेख के लेखक द्वारा वर्ण शब्द का प्रयोग संभवतः दोहरे अर्थ में किया गया है-कवियों के लिए तो इसका प्रयोग किया ही गया होगा, साथ ही समस्त ज्ञान का भी इससे बोध होता होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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