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________________ १४० परमार अभिलेख अभिलेख में तिथि का अभाव है। यह संभव है कि टूटे हुए भाग में उल्लेख रहा हो । श्लोक ८५-८७ में उदयादित्य व नरवर्मन के उल्लेख हैं । उदयादित्य का शासनकाल १०९३-९४ ईस्वी में समाप्त हुआ था। उसका उत्तराधिकारी नरवर्मन था। इस प्रकार इसकी तिथि ११वीं सदी के अंतिम दशक में निश्चित की जा सकती है। प्रमुख ध्येय अनिश्चित है। संभवतः इसका उद्देश्य उज्जयिनी में शिव मंदिर के निर्माण अथवा पुनर्निर्माण का उल्लेख करना रहा हो। श्लोक ७९-८४ में भगवान शिव की प्रशंसा से यह निश्चित कि प्रशस्ति महाकाल को समर्पित हैं। पुराणों के अनुसार (शिव पुराण, भाग ४, अध्याय १, श्लोक २१-२३) द्वादश ज्योतिलिंगों में महाकाल सम्मिलित हैं। महाकाल मंदिर पूर्व काल से विद्यमान था। इस प्रकार उदयादित्य व नरवर्मन ने उसका पुनर्निर्माण किया होगा। अभिलेख के प्रथम खण्ड में १९ श्लोक हैं। इनमें से प्रथम १६ श्लोकों में शिव की स्तुति एवं अर्बुद पर्वत का वर्णन है । इसके पश्चात् मुनि वसिष्ठ द्वारा यज्ञ करने एवं विश्वामित्र द्वारा उसकी सुरभि गाय के अपहरण का उल्लेख है । इस अंश में कवि ने दृष्टान्त, उपमा एवं कविता की विशिष्टताओं का उपयोग किया है जिनसे काव्य में सरसता आती है। श्लोक २० से ७८ तक का भाग जर्जर हो गया है। संभवतः इसमें परमार वंश की उत्पत्ति तथा वंशावली का उल्लेख रहा होगा। इसके कुछ अंश उदयपुर प्रशस्ति (क्रमांक २२) से मिलते हैं। वंशावली का विवरण नरवर्मन तक होने की संभावना है। नीचे दिया गया मूल पाठ श्लोक ७९ से प्रारम्भ होता है। इसमें शिव की स्तुति है। श्लोक ८०-८१ में भी शिव की स्तुति है । श्लोक ८२ में योग की महिमा दर्शायी गई है। श्लोक ८३ में ओंकार रूपी विष्णु के विराट स्वरूप की स्तुति है। श्लोक ८४ में पुनः शिवस्तुति है। ये श्लोक १७ पंक्तियों में हैं। पंक्ति १८-१९ में संस्कृत वर्णमाला के अक्षर उनकी श्रेणी के क्रम से खुदे हैं। प्रत्येक श्रेणी के अन्त में उनकी संख्या दी हुई है। इनका जोड़ ५१ दिया है। पंक्ति १८ में १४ स्वर तथा ४ अयागवाह हैं। पंक्ति १९ में २५ स्पर्श, ४ अन्तस्थ तथा ४ ऊष्म हैं। इस प्रकार कुल योग ५१ हैं । पंक्ति २० में आ से ल तक ५ दीर्घ स्वर हैं । पंक्ति २१-२२ में १४ माहेश्वर सूत्र हैं। इनकी कुल संख्या ४७ है। इसमें प्रत्येक सूत्र के अन्त में इत् व्यञ्जन छोड़ दिए गए हैं। ह केवल एक बार पंक्ति २२ के अन्त में दिया है। प्रत्येक अक्षर समह के अन्त में उनका योग दिया गया है। प्रस्तुत वर्णबंध में संस्कृत वर्ण संख्या ५१ है । परन्तु पाणिनी के अनुसार यह संख्या ६३ या ६४ है। उसमें २१ स्वर, २२ स्पर्श, ४ अन्तस्थ, ४ ऊष्म, ४ यम, ४ अयोगवाह, दुहस्पृष्ट और प्लुत लकार हैं। अंतिम अनिवार्य रूप से नहीं हैं। , वर्णमाला के बाद श्लोक ८५-८७ हैं। श्लोक ८५ के अनुसार उदयादित्यदेव की अक्षर रचित वर्णनाग-कृपाणिका कवियों व नरेशों के वक्षपट पर आभूषण रूप से सजाई जाती है। श्लोक ८६ में इसको असिपुत्रिका (खग) कहा गया है एवं उदयादित्य व नरवर्मन् दोनों के नामों से सम्बद्ध किया है। श्लोक ८७ में उदयादित्य की नामांकित वर्णनाग-कृपाणिका सुकविबंधु द्वारा रची गई। 'सुकविबंधुना' की व्याख्या आवश्यक है। यदि बंधु कवि था तो सुकवि उसकी उपाधि थी। इसके संबंध में एक विचार यह व्यक्त किया गया है कि जिस समय नरवर्मन अपने पिता उदयादित्य के शासनकाल में पूर्वी प्रदेश का प्रान्तपाल था तब यही बंधु नामक कवि उसका कृपापात्र रहा होगा। उसी ने प्रस्तुत वर्णनाग--कृपाणिका की रचना की। इसके विपरीत दूसरी संभावना व्यक्त की गई है कि 'सुकविबंधुना' (श्रेष्ठ कवियों का बंधु, मित्र अथवा आश्रयदाता) स्वयं नरवर्मन की उपाधि रही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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