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________________ ग्यारसपुर अभिलेख २०७ घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ।।४।। १४. जगत का नाशवान स्वरूप जान कर, अदृष्टफल को अंगीकार कर चन्द्र १५. सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक परमभक्ति के साथ राजब्रह्मपुरी दक्षिणदेश के १६. अन्तर्गत अद्रियलविदावरी स्थान से आये हुए भारद्वाज---- (५०) ग्यारसपुर का महाकुमार त्रैलोक्यवर्मदेव का स्तम्भ अभिलेख (खडित एवं तिथिरहित) प्रस्तुत अभिलेख विदिशा जिले में वासोदा परगने के अन्तर्गत ग्यारसपुर से प्राप्त एक प्रस्तर स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इसका उल्लेख श्री कनिंघम ने आ.स.इं.रि., भाग १०, १८७४-७५ व १९७६-७७ पृष्ठ ३१ व आगे पर; एम बी. गर्दे द्वारा ए. रि. आ. डि. ग., सं. १९७४; एवं ए. रि. ई. ए., १९५२-५३, क्रमांक बी १५१ पर किया गया। इसका सम्पादन के.जी. कृष्णन ने एपि.इं., १९५९-६०, भाग ३३, पृष्ठ ९३-९४ पर किया। स्तम्भ वर्तमान में पुरातत्व संग्रहालय, ग्वालियर में सुरक्षित है । स्तम्भ की ऊंचाई ४८ सें.मी. है। इस पर दो अभिलेख खुदे हैं। ऊपर संवत् ९३६ का एक अभिलेख है तथा उसके नीचे प्रस्तुत अभिलेख है । अभिलेख का आकार ४२४८१ सें. मी. है। खले में पड़े रहने के कारण अभिलेख बहुत जर्जर अवस्था में है। इसमें ४ पंक्तियां हैं परन्तु सभी का अंतिम भाग टूट गया है। अक्षरों की बनावट १२वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर सुन्दर है व गहरे खुदे हए हैं। इन की लम्बाई १.२ से १.५ सें.मी. है। भाषा संस्कृत है। सारा गद्यमय है। लेखनकला की दृष्टि से इसमें कोई विशेषता नहीं है । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व को प्रयोग है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया है। ..अभिलेख की तिथि भग्न हो गई है। पंक्ति क्र. ३ में केवल 'नवम्यां' ही शेष है। इस का प्रमुख ध्येय चामुण्डस्वामी की मूर्ति की स्थापना कर उसके निमित्त एक ग्राम दान करने का उल्लेख करना है। दान के समय नरेश हर्षपुर में ठहरा था। . पंक्ति क्रं. २ में श्री वैलोक्यवर्मदेव का उल्लेख है जिसके नाम के साथ कनिष्ठ राजकीय उपाधियां 'समस्त प्रक्रिया से विराजमान महाकुमार' लगी हैं । अभिलेख खण्डित अवस्था में होते हुए भी महत्वपूर्ण है । महाकुमार त्रैलोक्यवर्मन् का यह प्रथम उपलब्ध अभिलेख है । महाकुमार हरिश्चन्द्रदेव के ११५७ ई. के भोपाल ताम्रपत्न (आगे कं. ५१) में उल्लेख है कि उसने राज्य सिंहासन महाकुमार त्रैलोक्यवर्मन् की कृपा से प्राप्त किया। साथ ही त्रैलोक्यवर्मन् को नरेश यशोवर्मन् का पादानुध्यात निरूपित किया गया है। प्रस्तुत अभिलेख से यद्यपि महाकुमार श्रृंखला में त्रैलोक्यवर्मन् की स्थिति पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता तथापि यह सिद्ध तो होता ही है कि उसने कुछ समय के लिये शासन अवश्य किया था। उसका शासनकाल उपरोक्त अभिलेख की तिथि के आसपास निर्धारित किया जा सकता है। ...., अभिलेख में निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में हर्षपुर वर्तमान में निमाड़ जिले में हरसूद है जो इसी नाम के परगने का मुख्यालय है। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि महाकुमार त्रैलोक्यवर्मन् का शासन विदिशा जिले से लेकर पूर्वी निमाड़ जिले तक विस्तृत था। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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