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________________ परमार अभिलेख श्री वर्द्धमान४. पुर-समावासात् परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री उदयादित्यदे५. व-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज परमेश्वर श्री नरवर्मदेव-पादानु६. ध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री यशोवर्मदेव-पादानुध्यात-पर७. मभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीमज्जयवर्मदेवो विजयोदयी। ८. वटखेटक-षतृ (त्रिं) शत्-संव (ब)द्धमायमोडकग्रामे समस्त राजपुरुषान्-ब्राह्मणोत्तरान्प्र९. तिनिवासि-पट्टकिलजनपदादींश्च वो (बो)धयत्यस्तु वः संविदितं यथा । चन्द्रपुरी समावा१०. सितंरस्माभिः स्नात्वा चराचरगुरुं भगवन्तं भवानीपति समभ्यर्च्य संसारस्यासारतां ११. दृष्ट्वा । तथा हि। वाताभ्रविभ्रममिदि (दं) वसुधाधिपत्य मापातमात्रमधुरो विषयोपभोग प्राणास्तृणाग्रजलविन्दुसमानराणां धर्म : सखा परमहो परलोकयाने ।।३।। भ्रमत्संसार-चक्रारधाराधारामिमां श्रियं । प्राप्य ये न दुस्तेषां पश्चातापः परं फ१४. .. . _ लम् ॥४॥ इति जगतो विनस्व (श्व)रं स्वरूपमाकलय्यादृष्ट-फलमंगीकृत्य चन्द्रा१५. र्कातणवक्षिति-समकालं यावत्परया भक्त्या राजव्र (ब) ह्मपुर्या दक्षिणा-देशा१६. न्तःपाति-[द्रि]यलविदावरीस्थान-विनिर्गताय भारद्वाज . . . .. (अनुवाद) १. ओं। स्वस्ति । लक्ष्मी और जयवृद्धि हो। ____ जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति हेतु मस्तक पर ... धारण करते हैं, मेघ ही जिनके केश हैं, ऐसे महादेव सर्वश्रेष्ठ हैं ॥१॥ .. प्रलय काल में चमकने वाली विद्युत् की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु शिव की जटायें तुम्हारा कल्याण करें ॥२॥ ३. श्री वर्द्धमानपूर ४. में आवास करते हुए, परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री उदयादित्य देव ५. के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री नरवर्मदेव के पादानुध्यायी ६. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री यशोवर्मदेव के पादानुध्यायी ७. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री जयवर्मदेव विजययुक्त होकर ८. वटखेटक छत्तीस से संबद्ध मायमोडक ग्राम में समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आस पास के ९. निवासियों, पटेलों व ग्रामीणों को आज्ञा देते हैं--आपको विदित हो कि चन्द्रपुरी में आवास १०. करते हुए हमारे द्वारा स्नान कर चर व अचर के स्वामी भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर, संसार की असारता ११. देख कर, तथा-- __ इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाले हैं, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ।।३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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