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नागपुर प्रशस्ति
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(३) परमार राजवंश के पश्चातकालीन सभी प्रशस्तियों अथवा दानपत्रों आदि में लक्ष्मदेव के नाम का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। इसके विपरीत सभी में उदयादित्य के उपरान्त नरवर्मन के ही उत्तराधिकारी होने का उल्लेख मिलता है।
(४) केवल प्रस्तुत प्रशस्ति में ही लक्ष्मदेव की विभिन्न विजयों का उल्लेख मिलता है, जिनकी सत्यता में ही सन्देह होता है।
(५) १९७० ई. में प्राप्त संवत् ११४० तदनुसार १०८३ ई. का कामेद स्तम्भ अभिलेख (क्र. २७) इस तथ्य को उजागर करता है कि अभिलेख के निस्सृत करने से कुछ समय पूर्व ही लक्ष्मदेव की मृत्यु हो गई थी, क्योंकि उसके लिये अक्षयदीप जलाने हेतु उसके अनुज नरवर्मन ने १२ हल भूमि दान में दी थी। इसके अतिरिक्त दोनों भाईयों के नामों के साथ उसमें कोई उपाधि नहीं है, जिससे अनुमान होता है कि अपने पिता के शासनकाल में दोनों ही राज्यपाल के पद पर रहें होंगे।
(६) १९६८ ई. में प्राप्त नरवर्मन के देवास ताम्रपत्र अभिलेख (क्र. ३४) से ज्ञात होता है कि नरवर्मन ने अपने पिता उदयादित्य की वार्षिकी के अवसर पर दो हल भूमि दान में दी थी। अतः उदयादित्य की मृत्यु एक वर्ष पूर्व १०९४ ई. में हुई थी।
(७) नरवर्मन के अमेरा प्रस्तर अभिलेख (क्र. ३३) से ज्ञात होता है कि नरवर्मन तब तक मालव राज्यसिंहासन पर आरूढ़ हो चुका था। अतः उसके पिता उदयादित्य की मृत्यु उससे कुछ समय पूर्व ही होना चाहिये।
स प्रकार इन सभी साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लक्ष्मदेव की सत्य अपने पिता के शासनकाल में प्रायः १०८३ ई. में हो गई थी. और उसने राजसिंहासन को कभी भी सशोभित नहीं किया। अधिक संभावना यही है कि वह अपने पिता के शासनकाल में पूर्वी प्रदेशों का प्रान्तपति था। तथा उसका छोटा भाई नरवर्मन पश्चिमी भाग में प्रान्तपति था। इसी कारण नरवर्मन का संवत ११४० का स्तम्भ दान अभिलेख (ऋ. २७) उज्जैन के पास कामेद में प्राप्त हआ है। अत: लक्ष्मदेव की प्रशंसा व विजयों का जो विवरण प्रस्तुत में प्राप्त होता है वह स्पष्टतः नरवर्मन द्वारा अपने अग्रज के प्रति असीम आदर व अत्यधिक स्नेह की भावना को प्रदर्शित करता है। इस प्रकार यदि लक्ष्मदेव की विजयों में वास्तव में कोई सत्यता है तो अन्य किसी साक्ष्य की प्राप्ति तक प्रतीक्षा करना होगी।
___ भौगोलिक स्थानों में व्यापुर मण्डल नागपुर के समीप ही स्थित होना चाहिये । दान मूलतः व्यापुर मंडल में स्थित ग्रामों का किया गया था। अभिलेख एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है जो स्पष्टतः किसी मंदिर के निर्माण में प्रयुक्त था। अतः वह अपने मूल स्थान से अधिक दूर नहीं ले जाया गया है। इसीलिये बालगंगाधर शास्त्री ने सुझाव दिया था कि यह स्थान नागपुर के पास ही होना चाहिये (ज. ब. ब. रा. ए. सो., भाग १, पृष्ठ २६४-२६५)। नागपुर के पास रामटेक में अब भी प्राचीन किलों व मंदिरों के अवशेष पड़े हुए हैं। मोखलपाटक का तादात्म्य कठिन है। शेष सभी नाम विख्यात व सर्वविदित हैं।
(मूल पाठ) (छन्द : अनुष्टुभ १, ३, ५, ७, १५, ४६, ५६, ५८; रथोद्धता २, ४, १४; शार्दूलविक्रीडित ६, ८, ९, ११, १३, १७, १८, १९, २०, २२, २३, २४, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३९, ४१, ४३, ४४, ४५, ४७, ४८, ५०, ५१, ५३, ५४, ५५; वसन्ततिलका १०, १२; स्रग्धरा १६, ४२; मालिनी २१, २७, उपेन्द्र वज्रा ३८; उपजाति ४०, ४९, ५२, ५७)
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