________________
१९०.
२६.
२७.
२८.
३.
४
६.
सु (शु) द्धो वाचि शुचिर्न्स ( ) नस्य [जि] (पि) जगद्देव [ प्रतोषैरिह द्वंद्वंद्वहर] नमन्ननुदिनं बा (बा) ल्यात्प्रभृत्येव यः ।
चञ्चच्चामरम
७
न्तरेण महतीं राष्ट्र] श्रियं निश्चलां
वि (बि) भ्राण :
तत्पत्नी पद्मपत्रायतनयनयुगा पद्म
Jain Education International
- दलयति द्वेषस्पृशः पार्थिवान् ।। १८ ।।
ओं । सूर्य को नमस्कार ।
१.
रविवार अथवा किसी समय भी निर्बाध विश्वास (ज्ञान) को पूरित करने वाले सूर्य की नीम के पुष्पों व मूल सहित उपासना करना चाहिये ।
२.
जिस का पश्चिम समुद्रतट की वनपंक्ति में स्थिर स्थान है, जो अभेद्य है, सर्वादि है, अपरिमित छाया के लिये अत्यन्त उन्नत है, जिसकी अपरिमित शाखायें, शिखायें, पल्लवादि त्रैलोक्य के बहाने से आकाश व दिगन्तराल के बीच विकसित होते रहते हैं, वृक्षरूपी ऐसे शिवजी को हम प्रणाम करते हैं ।
[संकाशवक्त्रा ]
नाम्ना पद्मावतीति त्रिजगति विदिता [रागतः श्वेत] पद्मा । एतस्मिन्नग्रहारे हठहृतकलुषे कारयामास दित्यप्रासाद
निम्वा
लभतां जगतां श्रोतः संगम हृदयंगमा । सज्जनन्यस्तभारेयमश्वत्थामकवेः कृतिः ।। २० ।।
(अनुवाद)
समस्त मुनिजनों के आशीर्वादों से सम्मानित, आज्ञा स्वीकार की मुद्रा को मस्तक पर धारण करने वाले नृपतियों द्वारा अनेक चाटुवादों से स्तुत, विश्वामित्र को पराजित करने हेतु जिसने जन्म लिया है ऐसे वशिष्ठ के ध्यान एवं अग्नि के प्रताप से बलशाली परमार त्रिभुवन में विख्यात हुआ ।
५. उस वंश में श्री जगदेव नामक नरेश अपने वंश के नाम से युक्त ( शत्रुहंता) हुआ जिसने वृद्धिंगत अपने भुजश्रम से नरेशों को दिगन्तराली बना दिया ।
जिसका पिता नरेश उदयादित्य था और देव भोजराज चाचा था, विकसित होने वाले जो दोनों शीघ्र ही अपने तेज से वसुधा का अधिपत्य प्राप्त कर प्रतिष्ठित जैसे हुए I
जिसकी सेना के अश्वसमूहों के खुरों से खण्डित भूमि पर मार्ग में लड़खड़ाने वाली, मक्खन के समान कोमल चरणों वाली, पति द्वारा परित्यक्त, आंध्र नरेश की मृगनयनी रानियां समुद्रतट पर ताम्ररंग के पत्तों वाली लतापंक्तियों द्वारा ( मानो) अवलम्बन देकर ले जाई जा रही थीं ।
परमार अभिलेख
-119811
पल्लवाकृति उंगलियां जिसकी मुड़ी हुई हैं ऐसे हाथ में, त्रिपुरों के दहन हेतु सैकड़ों सर्पो द्वारा निर्मित डोरी से युक्त, जहां प्रकाशमान बाण के रूप में विष्णु का शरीर प्रकट होता है, ऐसे धनुष का अवलोकन करने वाले उस भगवान शिव की टेढ़ी भृकुटिचेष्टा आपके कल्याण के लिये हो ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org