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________________ जैनड़ अभिलेख १९१ ८. विनोदपूर्वक जिसने चक्रदुर्ग नरेश को पराजित कर दिया है ऐसे जिस (जगद्देव) की आज्ञा से नदी व पर्वतों के प्रान्तों की भूमियों में तथा अरण्यों के मध्य में भंवरियां, जीत कर लाये हुए, गजेन्द्रों के मदजलों से लिखित, श्रेष्ठ प्रशस्ति को विभिन्न उच्च कंठस्वरों के गुंजारवों से सतत पढ़ रही हैं। ९. दोर समुद्र के मध्य में गजेन्द्रों के दन्तरूपी मूसलों द्वारा हत प्रियों की पर्वत शिखर के समान कपाल पंक्तियों को देख कर प्रत्येक गृहों में शत्रु स्त्रियों के आक्रोश सहित अश्रुजलों से, मलहर नरेश के हृदयान्तर में शूल (वेदना) को पल्लवित कर रही है। ___ जयसिंह के पराक्रम की कथारूपी स्वाध्याय के समय जो संध्याकालीन मेघ की गर्जना के समान प्रसार करने वाले जिस नरेश (जगद्देव) के धनुष की ध्वनि को, आज भी अर्बुद पर्वत की गुफाओं के द्वारों पर रात दिन क्रन्दन करती गुर्जर वीर समूहों की स्त्रियों के आंसुओं की जल लहरियां व्यक्त कर रही हैं, यह आश्चर्य है। (मेघ गर्जन होने से वेदाध्ययन का अनध्याय होता है-याज्ञवल्क्य स्मृति-टी. एस. एस., भाग १, पृष्ठ १४४)। ११. एक ओर तो अद्भुत युद्धांगण में समस्त शत्रुओं को जीतने वाले जिसका धनुष का संधान करने में निपुण हाथ कीर्ति को विस्तृत करने में विरत नहीं हो रहा है, दूसरी ओर समुद्र लहरी जिसका अमरपट्ट है ऐसी पृथ्वी पर सैकड़ों सत्कविगण अमृतस्रावि सूक्तियों से स्तुति करने के लिये भी अक्षम हो रहे हैं। १२. कर्ण नरेश जिसका शरणागत हो गया है ऐसे जिस नरेश का, संसार के समस्त सार संग्रह में सहपाठी के समान एक ही उचित निर्मित सरोवर के समीप स्थित, सैकड़ों पंडितों के आलापों को सुन कर निःशंक राजहंसों के मधुर गुंजनों से आज भी दिनरात सतत् विजयोत्सव मनाया जा रहा है। १३. भुवन विजेता नरेश (जगद्देव) का अपने ही प्रताप को मूर्तिस्वरूप, कीर्ति का पात्र, पौरुष की चरम सीमा रूप, बाल्यावस्था से ही जगतप्रिय, जिसका यश विख्यात है ऐसे दाहिमों के वंश में श्री लोलार्क अमात्य उत्पन्न हुआ। . १४. जिसका महेन्द्र नामक पितामह एकमेव मनोहर अभिनव सौंदर्य की रेखा से युक्त मुख वाली शुंगा नामक पत्नि को प्राप्त कर, याज्ञिक कार्यों से समृद्धशाली गजदन्त कुन्द पुष्प श्वेतकमल - के समान कीर्तिपुंजों से पवित्र तेज को आज भी लोक में अभिव्यक्त कर रहा है। १५. उसका पिता श्री गुणराज था, जिसका ब्रह्मा के चारों कमल समान मुखों द्वारा गुणगान किया गया, जो संसार में अपनी अत्याधिक वीरता द्वारा वीरों में अग्रणी, सहस्रवीर जिसके साथी हैं ऐसे रण में एक ही शूरवीर, अर्जुन समान प्रौढ़ था व उदयादित्य के प्रताप को विकसित करने वाला (उसका) सदा प्रिय था। १६. लहराते हुए चित्रविचित्र चिन्हों से युक्त ध्वजवस्त्रों से, पंक्तिबद्ध स्थापित श्वेत छत्रों से, प्रलयकालीन मेघगर्जन के समान नगाड़ों के निनादों से, समूह रूप चंचल अश्वों से, वज्रसमूहों के समान भाले तलवार पाश आदि से अनुराग रखने वाले अश्वारोहियों व वीरों से जिसकी सेनायें जानी जाती थीं। १७. शाल वृक्ष के समान ऊंचा, चन्द्रसमान मुखवाला, कमल पत्ते के समान विशाल आंखों वाला, मोटे कंधों लम्बी भजाओं वाला, कनकगिरि की शिला के समान विशाल वक्षस्थल वाला, वह अनेक राजपुत्रों के मध्य भी तेज द्वारा जाना जाता था जिनके कोमल पत्तों समान कान अश्वसमूहों के हिनहिनाने की ध्वनि से बहरे हो जाते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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