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बांसवाड़ा अभिलेख
सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र वार २ याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिए समान रूप धर्म का सेतु है। अतः अपने अपने काल में आपको इसका पालन करना चाहिए ।।८।।
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझ
कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिए ॥९॥ २७. इति छ। छ। छ। २८. संवत् १०७४ आश्विन सुदि ५। हमारी आज्ञा । भंगलं महाश्री । ये हस्ताक्षर २९. महाराज श्री भोजदेव के हैं । इसके दापक श्री जासट हैं ।
(१०) बांसवाड़ा का ताम्रपत्र अभिलेख
(सं. १०७६=१०२० ई.)
. प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है। ये ताम्रपत्र १९ वीं सदी के तृतीय चतुर्थांश में गौरीशंकर ओझा ने बांसवाड़ा नगर में एक ठठेरिन से प्राप्त किये थे। ओझा जी ने इसका उल्लेख ए. रि. राज. म्यू. अजमेर में किया । डी. आर. भाण्डारकर ने इं. ऐं, भाग ६१, १८७२, पृष्ठ २०१ व आगे में इसका विवरण छापा । फिर ई. हुल्त्ज ने एपि. इं., भाग ११, १९११-१२, पृष्ठ ८१ व आगे में इसका संपादन किया। ताम्रपत्र इस समय राजपुताना म्यूजियम, अजमेर में सुरक्षित हैं।
ताम्रपत्रों का आकार ३४ ४ २५ सें.मी. है। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है। ताम्रपत्रों में दो छेद हैं। इनके किनारे मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े है । अभिलेख कुल ३२ पंक्तियों का है । प्रथम ताम्रपत्र पर १५ व दूसरे पर १७ पंक्तियां हैं। अक्षरों की बनावट अच्छी है। दूसरे ताम्रपत्र पर एक चतुष्कोण में उड़ते हुए गरुड़ की आकृति है। इसके बाय हाथ म एक नागह
की आकृति है। इसके बायें हाथ में एक नाग है व दाहिना हाथ उसको मारने के लिए उठा हुआ है। यह परमार राजचिन्ह है।
___अक्षरों की बनावट ११ वीं सदी की नागरी है। अक्षर सुन्दर ढंग से खोदे गए हैं। प्रथम सात पंक्तियों के अक्षर शेष से कुछ अधिक बड़े हैं । भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है । इसमें नौ श्लोक हैं । शेष सारा अभिलेख गद्य में है। - व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श का प्रयोग सामान्य रूप से किया गया है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया है। पंक्ति क्र. १० व २२ में अवग्रह का प्रयोग किया गया है। श्लोक के अन्त में म् के स्थान पर अनुस्वार है । कुछ अक्षर ही गलत लिखे हैं जिन को पाठ में सुधार दिया गया है। ये त्रुटियां स्थानीय व काल के प्रभाव को प्रदर्शित करती हैं व कुछ उत्कीर्णकर्ता की लापरवाही से बन गई हैं।
तिथि पंक्ति क्र. ३१ में अंकों में संवत् १०७६ माघ सुदि ५ लिखी है। इसमें दिन का उल्लेख न होने के कारण इसकी सत्यता प्रमाणित करने में कठिनाई है। यह रविवार ३ जनवरी १०२० ईस्वी के बराबर है।
प्रमुख ध्येय के अनुसार भोजदेव ने उपरोक्त तिथि को स्थली मंडल में घाघ्रदोर भोग के अन्तर्गत वटपद्रक ग्राम में कोंकण विजयपर्व पर स्नान कर, भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर (पं. १०-११) सौ निवर्तन भूमि (पं. १६) दान में दी । दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण वामनपुत्र भाइल था। वह वसिष्ट गोत्री, वाजिमाध्यंदिन शाखी, एक प्रवरी था। उसके पूर्वज छिच्छा स्थान से आये थे।
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