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________________ ४८ परमार अभिलेख - पंक्ति क्र. २-७ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है जिसके अनुसार सर्वश्री सीयक देव, वाक्पतिराज देव, सिंधुराज देव व भोज देव के उल्लेख हैं। इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हुई हैं। भोजदेव के वंश का नामोल्लेख नहीं है । पंक्ति क्र. ८ व आगे में उस ग्राम का विवरण है जिसमें सौ निवर्तन भूमि (पं. १६) का दान दिया गया था। निवर्तन भूमि के नापने का एक नाप था । लीलावती (१.६) के अनुसार एक निवर्तन ४०० वर्ग गज का होता था। परन्तु कौटिल्य (२.२०) के अनुसार यह ९०० वर्ग गज का होता था। अभिलेख में एक नवीन तथ्य है कि नरेश के हस्ताक्षर दोनों ताम्रपत्रों पर हैं--प्रथम ताम्रपत्र पर अंतिम पंक्ति १५ एवं दूसरे ताम्रपत्र पर अंतिम पंक्ति ३२ पर। इसका कारण तो ज्ञात नहीं है। परन्तु संभव है कि दान की घोषणा किसी दापक के माध्यम से न होने से ताम्रपत्रों में किसी प्रकार के हेरफेर को रोकने हेतु ऐसा किया गया होगा। दान का अवसर विशेष महत्व का है। पंक्ति १० में लिखा है कि भूदान कोंकण विजयपर्व के अवसर पर दिया गया था। हुल्त्ज़ ने कोंकण विजयपर्व का अर्थ "कोंकण विजय के वार्षिकोत्सव के अवसर पर" लगाया है। डी. आर. भाण्डारकर के मतानुसार इसका अर्थ है-“कोंकण विजय करने पर पर्वरूप में आनन्द मनाने के अवसर पर" (इंडियन ऐंटिक्वेरी, भाग ६१, पृ. २०१ व आगे)। डी. सी. सरकार इसी मत से सहमत हैं (एपि. इं. ३३, २१३) । वास्तव में यही विचार ठीक भी लगता हैं । भोजदेव ने कोंकण विजय १०१८ ई. एवं १०२० ई. के बीच किसी समय की होगी। उसके महुडी ताम्रपत्र, जो १०१८ ई. का है, में इस विजय का कोई वर्णन प्राप्त नहीं होता है । यह संभव है कि प्रस्तुत भूदान वास्तव में कोंकण पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष में दिया गया हो । भोजदेव जब कोंकण पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् गुजरात-बांसवाड़ा मार्ग से होकर राजधानी धारा नगरी को लौट रहा था, तभी बांसवाड़ा क्षेत्र में प्रस्तुत भूदान प्रदान कर ताम्रपत्र निस्सृत करवा दिए । चूंकि प्रस्तुत अभिलेख की तारीख ३ जनवरी, १०२० ईस्वी है अतः इससे कम से कम एक या दो माह पूर्व उसने विजयश्री प्राप्त की होगी । अतः कोंकण विजय की संभावित तारीख नवम्बर १०१९ ईस्वी में निश्चित करना ही युक्तियुक्त होगा। अभिलेख में निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में स्थली मण्डल संभवतः वागड़ भूभाग अर्थात वर्तमान राजस्थान के बांसवाड़ा और डूंगरपुर जिले हैं। वर्तमान में अर्थणा से उत्तरपूर्व की ओर प्रायः दो किलोमीटर की दूरी पर थली नामक स्थान है जो मूलतः स्थली रहा होगा जिसके नाम से मण्डल विख्यात था। घाघ्रदोर भोग संभवतः व्याघ्रदोर भोग है जिसका तादात्म्य बांसवाड़ा जिले में वागीडोरा नामक तहसील से किया जा सकता है। वटपद्रक संभवतः वरादिया ग्राम है जो वागीडोरा से उत्तर की ओर १० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है अथवा इसकी समता वालिया से करना संभव है जो वागीडोरा से दक्षिण पश्चिम की ओर प्रायः २० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। छिंच्छा, जहां से दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण निकल कर आया था, संभवतः छींछ ग्राम है जो वागीडोरा से उत्तर दिशा में प्रायः १० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । मूल पाठ (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं। जयति व्योमकेशौ (शोऽ) सौ यः सर्गाय वि(बि) भति ता (ताम्) । ऐंदवी शिरसा लेखां ज गद्वी (दी)जांकुराकृति (तिम्) ॥[१॥] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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