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परमार अभिलेख
प्रलय काल में चमकने वाली विद्युत की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु शिव की जटायें तुम्हारा कल्याण करें ॥२॥ २. परमभट्टारक ३. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सीयकदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज
परमेश्वर श्री ४. वाक्पतिराजदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सिंधु-राज देव के ५. पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव कुशलयुक्त हो भूमिगृह
पश्चिम द्विपंचाशत्क (५२) ६. के अन्तर्गत दुर्गाईग्राम में आए हुए सभी राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आस पास के निवासियों, पटेलों, ७. ग्रामीणों आदि को आज्ञा देते हैं। आपको विदित हो कि श्रीयुत धारा में स्थित हमारे द्वारा
संवत् एक हजार चौहत्तर में ८. श्राबण सुदि पूर्णिमा गुरुवार को हुए चन्द्रग्रहण पर्व पर स्नान कर चर व अचर के स्वामी भगवान ९. भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर संसार की असारता जान कर, तथा . - इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग
प्रारम्भमात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ॥३॥
घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ॥४॥ १२. इस जगत का विनश्वर स्वरूप समझकर ऊपर लिखा ग्राम चारों सीमाएं गोचर भूमि तक, साथ में १३. हिरण्य भाग भोग उपरिकर आदि सब प्रकार की आय समेत श्री गौड़देश के अन्तर्गत श्रावणभद्र
स्थान से देशान्तर-गमन करके आये १४. वत्स्य गोत्री पंचप्रवरी वाजसनेय शाखा के अध्यायी भट्ट गोगर्ण के पौत्र भट्ट श्रीपति के पुत्र, पंडित १५. मार्कण्ड शर्मा के लिए मातापिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिए अदृष्टफल को स्वीकार ..... कर चन्द्र सूर्य समुद्र
(दूसरा ताम्रपत्र) १६. व पृथ्वी के रहते तक परमभक्ति के साथ राजाज्ञा द्वारा जल हाथ में लेकर दान दिया है। यह
मानकर वहां के निवासियों १७. पटेलों जनपदों आदि द्वारा जिस प्रकार दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि हमारी
आज्ञा श्रवण करके पालन करते हुए। १८. सभी कुछ इसको देते रहना चाहिए। और इस पुण्यफल को समान रूप जान कर हमारे वंश में
व अन्यों में उत्पन्न होने वाले भावी नरेशों १९. को हमारे द्वारा दिये इस धर्म दान को मानना व पालन करना चाहिए । और कहा गया है--
सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब २ उसी को उसका फल मिला है ।।५।।
यहां पूर्व नरेशों द्वारा धर्म व यश हेतु जो दान दिये गये हैं, निर्माल्य एवं के के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति इसे वापिस लेगा ।।६।।
हमारे उदार कुलम को उदाहरणरूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये, क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है ॥७।।
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