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________________ २३० परमार अभिलेख १४. ऋषि तथा मनुष्यों को संतृप्त कर चर व अचर के स्वामी भगवान भवानीपति की विधि पूर्वक अर्चना कर समिधा कुश तिल अन्न घी की आहूतियों से १५. अग्नि में हवन करके सूर्य को अर्घ्य दे कर तीन प्रदक्षिणा कर, आचमन कर, संसार की असारता देख कर १६. और यह जान कर कि यौवन धन व जीवन कमल के पत्ते पर गिरे जल के समान क्षण भंगुर है। और कहा गया है. इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ॥३॥ __ घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ॥४॥ १९. इस जग का नाशवान रूप मान कर माता पिता व स्वयं के यश व (दूसरा ताम्रपत्र-अग्रभाग) २०. पुण्य की वृद्धि के लिये तिल' यव कुश व जल हाथ में लेकर गर्ग गोत्री शैन्या आंगिरस २१. तीन प्रवरी वाजसनेय शाखी अग्निहोत यज्ञधर के पुत्र द्विवेद पुरोहित मालू २२. शर्मा ब्राह्मण के लिये ऊपर लिखा गुणौरा ग्राम गडे धन व कल्याण धन के साथ वक्षों की पंक्तियों से २३. युक्त, चार प्रकार के कंटकों से शुद्ध, वापी कूप तड़ाग बगीचा नदी और यहां वीड़ वाटिका से उपयुक्त सभी प्रकार की आंतरिक सिद्धि २४. सहित, जब तक चन्द्र सूर्य समुद्र सरिता नागों के आठकुल, आठ दिग्गज, उपेन्द्र, सिद्ध विद्याधर आदि २५. के साथ पृथ्वी जब तक स्थिर है तब तक शासन द्वारा दान दिया गया। अतः यहां के ग्रामवासियों पटेलों लोगों २६. तथा किसानों द्वारा जिस प्रकार उत्पादन के अनुसार भाग भोग कर हिरण्य आदि आज्ञा ___मान कर ग्राम संबंधी सभी कुछ २७. इसके लिये देते रहना चाहिये। और इसका समान रूप फल जान कर हमारे वंश में व अन्यों में भी उत्पन्न होने वाले नरेशों को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को २८. मानना व पालन करना चाहिये। क्योंकि-- __सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब तब उसी को इसका फल मिला है ।।५।। ___ जो भूमि को ग्रहण करता है और जो भूमि को देता है वे दोनों ही पुण्यकर्म में नियुक्त होने से स्वर्गवासी होते हैं ।।६।। ___ हे इन्द्र ! शंख, श्रेष्ठ आसन, छत्र, श्रेष्ठ अश्व, श्रेष्ठ वाहन, ये सभी चिन्ह भूमिदान के फलरूप हैं ॥७॥ ___ जो मन्द बुद्धि पापों से आवृत्त हो कर भूमि का हरण करता है अथवा हरण करवाता है, वह वरुण द्वारा पाश में बांधा जावेगा और तिर्यग योनि में उत्पन्न होगा ।।८।। - जो स्वयं के द्वारा दी गई अथवा अन्यों के द्वारा दी गई भूमि का हरण करता है वह साठ हजार वर्ष तक विष्टा का कीड़ा बनता है ।।९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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