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परमार अभिलेख
ने इसका उद्धार किया।" (भोज व उदयादित्य के संबंधों के बारे में अभिलेख क्र. २१ तथा आक्रमणकर्ता नरेशों के बारे में अभिलेख क्र. २२ व ३६ देखिये)
श्लोक ६-७ में उल्लेख है कि उदयादित्य के अनेक पुत्र होने पर भी अपनी इच्छा के अनुरूप जगद्देव नामक पुत्र की प्राप्ति की। हमें ज्ञात है कि उदयादित्य के अन्य दो पुत्र लक्ष्मदेव व नरवर्मन् थे। लक्ष्मदेव की मृत्यु पिता के जीवन काल में हो गई एवं नरवर्मन् पिता का उत्तराधिकारी हुआ। जगद्देव का नाम परमार अभिलेखों में प्राप्त नहीं होता, इस कारण डी.सी. गांगुली ने उसका तादात्म्य लक्ष्मदेव से कर दिया जो निश्चित ही तथ्यों के विपरीत है । श्लोक ८ क्र. से ज्ञात होता है कि उदयादित्य ने जगद्देव को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया, परन्तु अपने बड़े भाई के पक्ष में उसने सिंहासन त्याग दिया । रासमाला (सम्पादन रालिसन, भाग १, पृष्ठ १७७ व आगे) के अनुसार उदयादित्य की बाघेला व सोलंकी वंशीय दो रानियां थीं, जिनके क्रमशः रणधवल (रिंधुवुल) एवं जगद्देव (जुगदेव) नामक पुत्र थे । जगदेव अपनी विमाता के व्यवहार से रूष्ट हो गुजरात चला गया। वहां वह सिद्धराज जयसिंह का सेनापति बन गया। इस पद पर वह १८ वर्ष तक रहा । एक बार सिद्धराज जयसिंह ने मालवा पर आक्रमण की योजना बनाई, अतः जगदेव गुजरात छोड़ मालवा चला आया। उसके पिता ने उसका स्नेहयुक्त स्वागत किया एवं अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। पिता की मृत्यु पर यह मालव राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ एवं उसने ५२ वर्ष तक राज्य किया। - रासमाला के उपर्युक्त विवरण की प्रस्तुत अभिलेख से केवल आंशिक रूप में पुष्टि होती है। जगद्देव का कम से कम एक बड़ा भाई तो अवश्य था, जिसका विरुद् संभवतः रणधवल रहा हो । यह भी हो सकता है कि उदयादित्य ने उस को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया हो। परन्तु प्रस्तुत अभिलेख से ज्ञात होता है कि वह मालव राजसिंहासन पर कभी आरूढ़ नहीं हुआ। श्लोक क्र. ९ के अनुसार वह कुन्तल नरेश के पास चला गया जहां उसका सौहार्दपूर्ण स्वागत हुआ। यह कुन्तल नरेश परवर्ती चालुकय वंशीय विक्रमादित्य षष्टम् (१०७६-११२६ ई.) था। प्रतीत होता है उसने जगदेव को गोदावरी नदी के उत्तर की ओर स्थित प्रदेश का शासक बना दिया। यह भूभाग तत्कालीन शक्तियों में कुछ समय पूर्व तक संघर्ष का कारण बना हुआ था।
का राष्ट्रकूटों के समय में परमार राज्य की दक्षिणी सीमा संभवतः नर्मदा नदी थी। यहीं पर सीयक द्वितीय ने खोटिग राष्ट्रकूट को हराया (अभिलेख क्र. १-२) एवं राजधानी मान्यखेट को लूटा था । अब परमार राज्य की दक्षिणी सीमा संभवत: गोदावरी बन गई । फिर चालुक्य तैलप द्वितीय ने अंतिम राष्ट्रकूट नरेश को हराया एवं मुंज (वाक्पति द्वितीय) पर आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये (मेरुतुंग रचित् प्रबन्ध चिन्तामणि, टाऊनी का अनुवाद, पृष्ठ २३) । तैलप ने संभवतः वह सारा क्षेत्र जीत लिया जो सीयक व मुंज ने राष्ट्रकूटों से प्राप्त किया था। परन्तु शीघ्र ही सिंधुराज ने इस क्षेत्र पर पुनः अधिकार कर लिया। उसके राजकवि पद्मगुप्त ने लिखा है-“जिस (सिंधुराज) ने अपनी खड्ग के बल पर स्वराज्य को प्राप्त किया, जिस पर कुन्तलपति ने अधिकार कर लिया था. . . . . ." (अध्याय १, श्लोक ७४)। उदयादित्य के शासन के अंतिम वर्षों में चालुक्य विक्रमादित्य षष्टम् ने विदर्भ पर आक्रमण कर उसके कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। नागपुर क्षेत्र में सीतावल्दी से प्राप्त शक संवत् १००८ तदनुसार १०८७ ई. के एक प्रस्तर अभिलेख से ज्ञात होता है कि विक्रमादित्य षष्टम् का धाडीमण्डक राष्ट्रकूट नामक एक माण्डलिक इस भूभाग पर शासन कर रहा था। (एपि. इं., भाग ३, पृष्ठ ३०४ व आगे)। प्रतीत होता है कि विक्रमादित्य षष्टम् ने जगद्देव को बरार घ' भूतपूर्व हैद्राबाद रियासत का उत्तरी भाग शासन करने हेतु सौंपा होगा। मेरुतुंग (उपरोक्त, पृष्ठ १८६) के साक्ष्य से भी ज्ञात
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