________________
परमार अभिलेख
क' अक्षरों की बनावट ११ वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर भलीभांति खुदे हैं। इनकी सामान्य लम्बाई १ से. मी. है। भाषा संस्कृप्त है व गद्यपद्य है। इसमें नौ श्लोक हैं; शेष गद्य में हैं । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श का प्रयोग किया गया है। कहीं पर न के स्थान पर ण है। र के बाद का व्यंजन दोहरा है। म् के स्थान पर अनुस्वार है । कुछ शब्द ही त्रुटिपूर्ण हैं । इन सभी को पाठ में सुधार दिया * गया है। ये सभी काल के व प्रादेशिक प्रभाव हैं । कुछ त्रुटियां उत्कीर्णकर्ता की गलती से बन गई हैं ।
तिथि अन्त में अंकों में संवत् १०७६ भाद्रपद सुदि १५ है। इसमें दिन का उल्लेख न होने से सत्यापन संभव नहीं है । भोजदेव के पूर्व-वर्णित बांसवाड़ा अभिलेख की तिथि संवत् १०५६ माघ सुदि ५ है। अतः प्रश्न उपस्थित होता है कि इन दोनों में से पूर्वकालीन कौन सा है। ये दोनों ही विक्रम संवत् से संबद्ध हैं। यदि संवत् का प्रारम्भ चैत्र मास से माने तो प्रस्तुत अभिलेख बांसवाड़ा अभिलेख से पूर्वकालीन होगा। परन्तु मालव व गुजरात क्षेत्रों में संवत् का प्रारम्भ कार्तिक मास से मानने की परम्परा है। इस संबंध में निकटतम अभिलेखीय साक्ष्य भोज
देव का संवत् १०७८ का उज्जैन ताम्रपत्र (क्रमांक १२) है। उसमें भूदान देने की तिथि संवत् ..१०७८ माघ वदी तृतीय रविवार, एवं ताम्रपत्र लिखवा कर प्रदान करने की तिथि १०७८ चैत्र सुदी १४ लिखी है। इस प्रकार संवत् १०७८ का माघमास चैत्रमास से पहले आया । अतः वर्ष का प्रारम्भ कार्तिक मास से हुआ। इसी प्रकार बांसवाड़े के अभिलेख से प्रस्तुत अभिलेख बाद का है। गणना करने पर यह तिथि रविवार, ४ सितम्बर, १०२० ई. के बराबर बैठती है। उस दिन चन्द्रग्रहण था।
अभिलेख के प्रमुख ध्येय के अनुसार श्री भोजदेव ने न्यायप्रद-सप्तादशक के अन्तर्गत नालतड़ाग ग्राम कोंकण विजय ग्रहण पर्व पर दान में दिया था। दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण भट्ट
टुसिक का पुत्र पंडित देल्ह था जो कौशिक गोत्री, अघमर्षण विश्वामित्र व कौशिक इन तीन प्रबरों वाला, माध्यंदिन शाखी था। वह विशाल ग्राम से आया था एवं उसके पूर्वज स्थानेश्वर से देशान्तरगमन करके वहां आये थे।
दानकर्ता नरेश की वंशावली में सर्वश्री सीयकदेव वाक्पतिराजदेव द्वितीय, सिंधुराजदेव व भोजदेव के उल्लेख हैं। इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियाँ परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हैं। वंश का नाम नहीं है।
दान का अवसर महत्वपूर्ण है। यह कोंकण ग्रहण पर्व लिखा है। पूर्ववणित अभिलेख में, जो ७ मास १० दिन पहले निस्सत किया गया था, दान का अवसर 'कोंकण विजय पर्व' लिखा है। अतः यह निश्चित है कि दोनों भूदान कोंकण विजय के उपलक्ष में दिये गये थे। परन्तु दोनों अवसरों का वास्तविक अभिप्राय क्या है ? दशरथ शर्मा ने सुझाव दिया है कि बांसवाड़ा अभिलेख में उल्लिखित 'कोंकण विजय पर्व' का भाव कोंकण विजय यात्रा पर्व मानना चाहिये। उस दिन परमार सेनाओं ने कोंकण विजय हेतु प्रस्थान किया था। उसके ७ मास १० दिन बाद प्रस्तुत अभिलेख निस्सत किया गया जिसका अवसर 'कोंकण विजय ग्रहण पर्व' लिखा है। इस दिन भोजदेव की सेनाओं ने समस्त कोंकण पर विजय प्राप्त कर अपने अधीन कर लिया था (जर्नल ऑक यंगानाथ झा रिसर्च इन्स्टीट्यूट, भाग. ५, पृष्ठ ६१-६२) ।
उपरोक्त संभावना अत्यन्त न्यून है । वास्तव में संपूर्ण परिस्थिति पर विचार करने पर, डिस्कलकर महोदय से सहमत होते हुए, कहा जा सकता है कि भोजदेव ने 'कोंकण पर्व विजय'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org