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बेटमा अभिलेख
पर विजय प्राप्त करने के फलस्वरूप पर्वरूप में आनन्द मनाने के अवसर पर भूदान किया। बाद में 'कोंकण विजय ग्रहण पर्व' पर कोंकण क्षेत्र को पूर्णतः अपने अधीन घोषित करने के फलस्वरूप पर्वरूप में आनन्द मनाते हुए ग्रामदान दिया। उत्तरकालीन तिथिरहित यशोवर्मन के काल्वन ताम्रपत्र (क्र. १८) में लिखा है कि भोजदेव ने कोंकण पर विजय प्राप्त की थी एवं नासिक भूभाग पर. उसके मांडलिक के रूप में यशोवर्मन शासनसूत्र संभाल रहा था। इस प्रकार शिलाहार नरेश अरिकेसरी का पुत्र कोंकण क्षेत्र पर भोजदेव के अधीन शासन करता रहा। प्रतीत होता है कि परमारों के मांडलिकों के रूप में शिलाहार नरेश कोंकण क्षेत्र पर १२वीं शताब्दि तक शासन करते रहे। बाद में वहाँ गुजरात के चालुक्यों ने अधिकार कर लिया।
भौगोलिक स्थानों में विशाला ग्राम का प्रयोग उज्जयनी नगरी के लिये हुआ है। स्थानीश्वर आधुनिक थानेसर है जो हरयाना राज्य के करनाल जिले में है। न्यायप्रद सप्तादशक, जो १७ ग्रामों का समूह था, इन्दौर के दक्षिण पश्चिम में कर के पास कपड रहा होगा। नालतडाग भी उसी के पास नार या नाल ग्राम था।
मूलपाठ (प्रथम ताम्रपत्र) .. १. ओं।
ज[य]ति व्योमकेशोसी यः सग्य वि (बि) भति तां (ताम्) । ऐंदवीं सि (शि) रसा लेखां जगद्वी (द्वी)जांकुराकृतिम् ।।[१।।] तन्वन्तु वः
. स्मरारातेः कल्याणमनिशं जटाः । ____ कल्पान्तसमयोद्दामतडिद्वलयपिंगलाः ।।२।।] परममट्टारक-महा
राजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसीयकदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर४. श्रीवाक्प]तिराजदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसिंधुराजदेव-पा
दानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीभोजदेवः कुशली । न्यायपद्रसप्तादशकान्तःपाति-नालतडागे समुपगतान्समस्त-राजपुरूषान्वा (ब्रा)ह्मणोत्तरान्प्रतिनिवासि । पट्टकिल जनपदादीश्च समादिशत्यस्तु वः संविदितम् । यथास्माभिः स्नात्वा चराचरगुरुं भगवन्तं भवानीपति समम्यच्चयं । संमारस्यासारतां दृष्ट्वा ।।
वाताभ्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्य मापातमात्र मधुरो विषयोपभोगः । ९. प्राणास्ति (स्तृ) णाग्रजलवि (बि)न्दुसमा नराणां धर्मः सखा परमहो परलोकयाने ।।३।।] भ्रमत्संसार चक्राग्र
धाराधारामिमां श्रियं (थम्) । प्राप्य ये न ददुस्तेषां पश्चातापः परं फलं (लम्) ।।[४।।] इति जगतो विनश्वरं ११. स्वरुपमाकलय्योपरिलिखितंग्राम: स्वसीमातृणगोचर-यूतिपर्यन्तः सहिरण्यभागभोंगः १२. सोपरिकरः सादायसमेतश्च ।। विशाल-ग्रामविनिर्गत पूर्व[जा]य स्थाण्वीश्वरादा-गताय १३. स्वहस्तोयं श्रीभोजदेवस्य ।
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