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मोडी अभिलेख
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३८-४०
(आ) अजयेश्वर
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दानकर्ता
पद दान का विवरण देवमूर्ति पंक्ति क्रमांक १. . . . देव मण्डलीक गुवासा ग्राम
एकल्लदेव... ३५-३६ २. श्री हर... ठकुर सर्वादाय समेत ३ ग्राम ३. श्री हरदेव
ठकुर अपने भाग से सर्वादाय
समेत ग्राम (?) ४. चादुरि
महाप्रधान सर्वादाय समेत ग्राम (?) वैद्यनाथ ४०-४१ ५. अरिसिंहदेव राजपुत्र का
(अ) वैद्यनाथ ४२-४३ पौत्र ६. अर्जुन कायस्थ पंडित एकहल भूमि
४५ ७. बालसिंह ग्रामाध्यक्ष
४६-४७ एक द्रम्म
४८ - दो दुकानें, एक घर १०. कंबलसिंह पुत्र डोडराज ११. ४ जौहरी
राउता ग्राम में भूमि उपरोक्त के अतिरिक्त पंक्ति ४० में नरेश के महाप्रधान चादुरि का उल्लेख है । पंक्ति ४२ में राजपुत्र गोविन्दराज के पौत्र राजश्री अरिसिंहदेव का नाम है । एकल्लदेव संभवतः एक स्थानीय देवता था, जिसकी प्रतिमा वैद्यनाथ, अजयेश्वर व अन्य देवप्रतिमाओं सहित मौड़ी के कुछ देवालयों में स्थापित की गई थी। भण्डारकर एवं बनर्जी ने अपनी उपरोक्त रिपोर्ट्स में इन देवताओं का विषद् विवरण दिया है । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस प्रकार का महत्वपूर्ण अभिलेख अत्यन्त खण्डित अवस्था में ही प्राप्त है ।
भौगोलिक स्थानों में मौड़ी वर्तमान में मंदसौर जिले में गांधी सागर की डूब में आ गया है। वहां से प्राप्त अवशेष इन्दौर व अन्य संग्रहालयों में ले जाये गये हैं। घरटोड (पं. ४६) मौड़ी से पश्चिम में १२ किलोमीटर की दूरी पर घड़ोद है । वह भी डूब में आ गया है । राउता (पं. ५२) मौड़ी से पश्चिम में १८ कि. मी. रावतपुर है । यह रामपुर के वन प्रदेश में निर्जन गांव है । गुवासा (पं. ३५) का संभवतः अब अस्तित्व नहीं है ।
(मूलपाठ) १. हतहृदि विदधसिद्धि दत्तावलंबो (बो) हेरंवो (बो) वो विवेकं वितरतु मधुनापादिते. .... २. निहंति सततं सव (ब) ह्मका निर्जराः साक्षादेव स एष सिद्धनगरी नाथाञ्चितो. ..... ३. विशंति चकिताः खिद्योतपंजा इव ॥४॥ उत्तंकाय महीध्रदर्पदलनश्च..... ४. []तं भुजमिवान्तकोजसा पश्चिमे सिंधौ तिष्ठति नंदिवर्द्धनगिरिर्भ ..... . ५. त्ययं (यम्)। क्रीडाभिश्च निदर्शयति गगनेऽध्वा यत्र भूमौ स्थितिळ शि..... ६. सनाथं प्रमारः प्रसिद्धस्तद्वंश्यं यद्भविष्यत्यपरनृपशतं तद्भविष्यत्य..... ७. . . . . . . डुकल्पो निधिरिव महसां मुंदको नाम यज्वा । तापेनार्ता धरित्री विचलति
व[सुधा] . . . . . ८. . . . . .न सह[वि]श्चक्रे धरित्रीधवः ॥१४॥ वंशे तस्य महारथः समजनि श्रीदर्प विश्चं
(श्वं) भरः संवर्ता[f] ...... ९. रणकपाद विजयी कोपि प्रभुण्यसामे तस्मिन्न जनिष्ट दुष्टभिदुरः कायस्थिरश्चान्वये ॥१....
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