SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७४ (७१) मोड़ी का जयवर्मदेव द्वितीय का प्रस्तर खण्ड अभिलेख (अपूर्ण) ( संवत् १३१४ = १२५८ ई.) परमार अभिलेख प्रस्तुत अभिलेख दो प्रस्तरखण्डों पर उत्कीर्ण है जो १९०० ई. में मंदसौर जिले की भानपुरा तेहसील में मोड़ी ग्राम से प्राप्त हुए थे । प्रारम्भ में ये चार खण्ड थे किन्तु वर्तमान में केवल दो खण्ड ही प्राप्त हैं । इनका उल्लेख प्रो. रि. आ. स. इ. वे. सं. १९१२-१३, पृष्ठ ५६; १९१९-२०; पृष्ठ ९४ पर है । प्रस्तरखण्ड पुरातत्व संग्रहालय, इन्दौर में सुरक्षित हैं । प्रथम प्रस्तरखण्ड पर २८ पंक्तियों एवं दूसरे पर २३ पंक्तियों का अभिलेख है । प्रस्तरखण्ड आकार में एक समान नहीं है अपितु आड़े टेढ़े हैं । अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नागरी है । अक्षरों की सामान्य लंबाई १.२ से १.५ सें. मी. है । भाषा संस्कृत है एवं गद्यपद्यमय है । परन्तु खण्डित अवस्था में होने के कारण कोई भी पंक्ति पूर्ण नहीं है । श्लोकों में क्रमांक दिये हुए हैं । - व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर ब ख के स्थान पर ष का प्रयोग है र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है । सभी स्थानों पर अनुस्वार का प्रयोग है । पुष्ट मात्राओं व अवग्रहों का प्रयोग भी है । कुछ शब्द ही तुटिपूर्ण हैं । इन सभी को पाठ में ठीक किया गया है । इनमें से कुछ त्रुटियां काल व प्रादेशिक प्रभावों को प्रदर्शित करती हैं । तिथि पंक्ति ३६ में अंकों में संवत् १३१४ माघ वदि १ लिखी है । इसमें दिन का उल्लेख नहीं है । यह मंगलवार २३ जनवरी, १२५८ ई. के बराबर | अभिलेख परमार नरेश जयवर्मदेव द्वितीय के शासन काल का है। इसका उद्देश्य मोड़ी में विभिन्न देवालयों के लिये अनेक व्यक्तियों द्वारा: ग्राम, भूमि व धन प्रदान करने का उल्लेख करना है। द्वारा कुछ मंदिरों के निर्माण करवाने का उल्लेख करना भी है । साथ ही एक ऋषि मल्लिकार्जुन अभिलेख को मोटे रूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है । प्रारम्भिक भाग में परमार राजवंश की प्रशंसा में श्लोकों के होने से उसे प्रशस्ति कहा जा सकता है । पंक्ति ५१ में प्रशस्ति शब्द का प्रयोग भी है। दूसरा भाग दान विवरणयुक्त है। पंक्ति ८ तक परमार वंश की पौराणिक उत्पत्ति रही होगी। इसके उपरान्त वैरिसिंह, सीयक, वाक्पतिराज, सिंधुराज आदि के उल्लेख पढ़ने में आते हैं । दूसरे प्रस्तरखण्ड में पंक्ति ३० में त्रिविधप्रवीर का उल्लेख है जो अजुर्नवर्मन् की उपाधि थी। इससे आगे, जो श्लोक ५४ का अंतिम भाग है, में एक नरेश द्वारा यदुनरेश को भयभीत करने का उल्लेख है। संभवतः यह विवरण देवपाल से संबंधित है । भीम द्वितीय चौलुक्य के समय देवपालदेव ने यादव नरेश सिंघण के साथ गुजरात पर आक्रमण करने हेतु एक संघ का निर्माण किया था ( जयसिंह सूरि कृत हम्मीर मर्दन, अंक १) । पंक्ति क्र. ३८ व ४० में शासनकर्ता नरेश जयवर्मन द्वितीय के उल्लेख हैं । यहीं प्रशस्ति का अन्त होता है । इससे पूर्व पंक्ति ३३ में अवन्ति निवासी पाशुपत ऋषि श्री मल्लिकार्जुन का उल्लेख है। जिसका प्रयोजन अनिश्चित है । परन्तु इसके तुरन्त बाद पंक्ति ३५ - ५२ में विभिन्न देवताओं के लिये दानों के विवरण हैं । अतः संभव है कि उसने अभिलेख के प्राप्ति स्थान पर मंदिर बनवाकर विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित करवाई होंगी । दानों का विवरण इस प्रकार है: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy