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________________ ३३६ २९. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. ३९. परमार अभिलेख हे भगवन् ! आप भस्मस्नान करके मस्तक पर गंगा के जलभार को धारण करके अपनी शांतमूर्ति व्यक्त करते हैं तथा हाथ में धनुष धारण करते हैं, यह योग्य ही है। कुछ नगरस्वामियों की विचित्र चेष्टाएं इसी प्रकार देखने में आती हैं, तो त्रैलोक्याधिपति के ऐसे भाव नहीं होंगे क्या ? ४०. हे वरद, देवगण आपकी आराधना करके राजलक्ष्मी भोगते हैं, परन्तु आपमें तो महादेव समान एकशब्द से संबोधित परमेश्वर्य कोटि से प्रतिष्टित भिक्षायुक्त जो निरीहता है, तो अन्य लक्ष्मीविलासों का क्या कहना ? अस्थियों की माला आभूषण एवं चिताभस्म अंगराग, प्रेतों से प्रीति एवं सियार आपके सहचर हैं, इसमें क्या दोष है। जिसका ऐश्वर्य परम अन्य पदवी को प्राप्त होकर विरक्त हो गया है उसके लिए सुवर्ण व पत्थर समान ही है । हे शिव, आपका निवास स्मशान, खिलौना भुजंग, वाहन बैल, भिक्षापात्र नरकपाल ( होने पर भी ) कोई दोष नहीं है। हे त्रिनयन, अल्प ज्ञान वाला लोक किस्त्र द्रव्यभार से दूर या समीपवर्ती रहता है । ( सत्वरजतम से परे ) निस्तै पुण्य मार्ग पर चलने वालों की कोई विधि नहीं तथा कोई निषेध नहीं होता है । आपका स्मशान में शयन, भिक्षा से भोजन, हड्डियां आभूषण जो भी हैं, तथापि हे भगवन्, ईश्वर ऐसा असामान्य नामधारी आप ही हैं, दूसरा कोई नहीं है । aria की झाड़ी में कृत्तिका की पीड़ा, वीर्य से अग्नि में हवन ही सत्योपासना, यह आपका चेष्ठित किसी प्रकार दूषित नहीं है। मिथ्या ज्ञान से जिनका मन दूषित हुआ है ऐसे व्यक्तियों के मार्ग को दूर से ही त्याग कर जो निकले हैं उनको लोकापवाद स्पर्श नहीं करते । हे सर्वदेव, शरीर पर सुवर्ण रत्नादि आभूषण धारण करते हैं, परन्तु आपके न कान में, न हाथ में गुज्जा मात्र भी सुवर्ण नहीं है, तथापि सौंदर्य मार्ग से परे सहज सौंदर्य आप में झलक रहा है । साधारण जनों के जबरन लाये हुए गुणों में आदर नहीं होता । ब्रह्मादिदेव स्वार्थ सिद्धि के लिये आपका पूजन करते हैं ऐसी प्रसिद्धि है, परन्तु आप किसी अन्य देव का पूजन नहीं करते। जिनकी इच्छामात्र से सारे विषय उपस्थित हो जाते हैं उन्हें अन्य देवों की उपासना की क्या जरूरत है । आपके मस्तक पर चन्द्रखण्ड है, खण्डित परशु आपका आयुध, भिक्षापात्र हिरण मस्तक का खण्डित कपाल, इस प्रकार आपकी सारी वस्तुएँ खण्डप्रायः होने पर भी आप सबकी स्मृति सर्व पूर्णत्व प्रदान करने के कारणरूप हैं । पृथ्वी पर अपनापद स्थापित किया, निर्मल आकाश ही जिसका स्वरूप है तथा तारारूपी पुष्पों से शिव का पूजन होता है । हे चन्द्रचूड भगवन्, इस विश्वरूपी भाव से जो आपका ध्यान करते हैं, वे आप में लीन हो जाते हैं, जैसे नदियों के प्रवाह समुद्र में मिल कर उसी के समान हो जाते हैं । हे देवदेव, वाराणसी में जो आपकी शैवज्योति समस्त भुवनों के दर्शन करने के लिए आदर्श - रूप स्थित है, उस महान ज्योतिलिंग के सम्मुख देह सन्यासयोग वाला पुरुष आप में लीन हो जाता है जैसे दीपक में तेज लीन हो जाता है । श्रीपर्वत पर जो आपका ज्योतिर्लिंग सुवर्ण के समान पीतवर्ण समस्त भुवनों में आश्चर्यरूप प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है, पुण्यशाली आपके भक्त आकाश में उसका दर्शन करके समस्त संसार बंधनों को त्याग कर आपके अनुग्रह से आपके गणों की श्रेणी में प्रविष्ट हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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