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मान्धाता अभिलेख
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अक्षरों की बनावट १३ वीं सदी की नागरी लिपि है । ये प्रायः १.२ सें. मी. लम्बे हैं । पंक्ति क्र. ४० व ५४ में कुछ अक्षर पंक्ति के ऊपर छोटे आकार में बाद में जोड़े गये हैं । श्लोकों के क्रमांक हैं। पंक्ति २८, ३४, ४९ व ५० में आधा अंक दो खड़े दण्ड द्वारा बनाया गया है । भाषा संस्कृत है एवं गद्य-पद्यमय है । इसमें २७ श्लोक हैं । शेष गद्य में हैं । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श का प्रयोग है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है । अनुस्वार का प्रयोग सभी स्थलों पर है। संधि की त्रुटियां भी हैं । कुछ शब्द ही गलत हैं । इन सभी को पाठ में ठीक कर दिया है।
अभिलेख की तिथि मध्य में शब्दों में व अन्त में अंकों में संवत् १२८२ भाद्रपद सुदि १५ गुरुवार सोमपर्व लिखी है जो १९ अगस्त १२२५ई. के बराबर है । उस दिन चन्द्रग्रहण था । परन्तु दिन गुरुवार न होकर मंगलवार था । इसका प्रमुख ध्येय नरेश देवपालदेव द्वारा महुअड प्रतिजागरणक में सतजुणा ग्राम के दान करने का उल्लेख करना है । इस ग्राम को ३२|| भागों में विभाजित कर ३२ ब्राह्मणों में बांटा गया था।
दानकर्ता नरेश की वंशावली में क्रमश: भोजदेव, उदयादित्य नरवर्मन्, यशोवर्मन्, अजयवर्मन् विध्यवर्मन् सुभटवर्मन्, अर्जुनवर्मन् एवं देवपालदेव हैं । इनके परमार वंश का उल्लेख भी है । पंक्ति क्र. २२-७१ में दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मणों का विवरण है। इनमें से २६ को एकएक भाग, ३ को आधा-आधा भाग, दो को डेढ़-डेढ़ भाग व एक को २ भाग प्राप्त हुए। प्रत्येक ब्राह्मण के गोत्र, प्रवर, उसके पितामह व पिता का नाम एवं उसके मूल स्थान का उल्लेख । इनके नामों के साथ उपाधि अथवा उपनाम है जो प्रायः उसके धार्मिक कृत्यों को प्रदर्शित करते हैं । ये उपनाम संकेत रूप केवल प्रारम्भिक अक्षर लिख कर दर्शाये गये हैं जैसे: अग्नि- अग्निहोत्रिन्; आव – आवसथिक; उपा—- उपाध्याय; च - चतुर्वेदिन् ; ठ -ठक्कुर; त्रि — त्रिवेदिन्; दी -- दीक्षित ; द्वि-द्विवेदी ; पं या पंडि— पंडित; पाठ — पाठक; याग्नियाग्निक शु – शुक्ल; श्रोत्रि — श्रोत्रिय । इनके अतिरिक्त एक ब्राह्मण की राजन् (पं. ३७) व अन्य की महाराज पंडित (पंक्ति ३९ ) उपाधि है । पंक्ति क्र. ७१ में एक ब्राह्मण को पञ्च उपाधि है जो पंचकुल, पंचकल्पित अथवा पंचोली हो सकती है। इसके अतिरिक्त २० ब्राह्मणों की तीनों पीढ़ियों की उपाधि एक समान है; सात के पितामह व पिता की उपाधियां एक समान है, परन्तु स्वयं की भिन्न है। एक ब्राह्मण के पितामह की उपाधि भिन्न है, परन्तु पिता व स्वयं की एक है, जबकि चार ब्राह्मणों के पितामह, पिता व स्वयं के उपनाम पूर्णतः भिन्न हैं। आगे इन ब्राह्मणों की सूचि दी जा रही है ।
प्रस्तुत अभिलेख का महत्व अत्याधिक है । इससे निश्चित होता है कि देवपालदेव राज - सिंहासन पर अर्जुनवर्मन् का उत्तराधिकारी बना था । उसका पिता हरिश्चन्द्र भोपाल क्षेत्र में महाकुमारीय शाखा से संबद्ध था, जहां उसका बड़ा भाई गद्दी पर आसीन था । संभवत: उसके निस्संतान मरने पर छोटा भाई देवपालदेव भोपाल क्षेत्र में सिंहासनारूढ़ हुआ । इसी बीच संभवत: संवत् १२७३ तदनुसार १२१६ ई. के आसपास धार के राजवंशीय नरेश अर्जुनवर्मन् का भी निधन हो गया। कोई अन्य उत्तराधिकारी न होने के कारण देवपालदेव को वह सिंहासन भी सौंप दिया गया। इस प्रकार संयोगवश देवपालदेव ने परमार वंश की दोनों शाखाओं को मिला कर पुनः एक कर दिया ।
भौगोलिक स्थानों में माहिष्मती नर्मदा के किनारे पर आधुनिक माहेश्वर है । सताजुणा ग्राम मान्धाता से दक्षिण पश्चिम में १३ मील दूर सतजन ग्राम है । महुअड ग्राम सतजन से २५
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