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________________ २५२ परमार अभिलेख लोक में केशव यह सत्यवाणी कहता है कि मेरे इस मंदिर को जो व्यक्ति देखता है, भूतल पर सो कर सिद्धि को प्राप्त हुए (अर्थात दिवंगत हुए) मुझ को सज्जन अपना दास सदा मानता रहे ॥१३।। महापुरुषों के प्रति अनुराग से मेरे कल्याण को विस्तृत करने की इच्छा रखने वाले बुद्धिमान देवशर्मा ने यह सुन्दर प्रशस्ति निर्मित की ।।१४॥ १८. सभी देवता लेखक व पाठकों के लिये शुभ हों। कल्याण हो। (६४) कर्णावद का देवपालदेव का मंदिर स्तम्भ अभिलेख (सं. १२७५ = १२१८ ई.) । प्रस्तुत अभिलेख उज्जैन जिले में कर्णावद ग्राम में कर्णेश्वर मंदिर में एक प्रस्तर स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इसका उल्लेख ए. रि. आ. डि. ग., संवत् १९७४, क्र. ३४; द्विवेदी कृत ग्वालियर राज्य के अभिलेख क्र. ९६ पर किया गया है। प्राप्त विवरण के अनुसार अभिलेख ६ पंक्तियों का है। भाषा संस्कृत है। वर्तमान में यह बहुत क्षतिग्रस्त हो गया है। इसमें देवपालदेव के शासनकाल के एक दान का उल्लेख है। विशेष-[हरिहर निवास द्विवेदी ने अपने ग्रन्थ में क्र. ७८ पर कर्णावद से प्राप्त देवपाल परमार नामयुक्त एक अन्य अभिलेख का उल्लेख किया है। उसकी तिथि संवत् १२१५ (?) तदनुसार ११५८ ई. दी है। यह तिथि अशुद्ध प्रतीत होती है। संभवतः यह संवत् १२७५ रही होगी। संवत् १२१५ देवपालदेव के शासनकाल से काफी पूर्व है। अन्य संदर्भ भण्डारकर की उत्तरी अभिलेखों की सूची क्र. १९१२ दिया है । . .मान्धाता का देवपालदेव का ताम्रपत्र अभिलेख __ (सं. १२८२=१२२५ ई.) का प्रस्तुत अभिलेख ३ ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण हैं जो १९०५ ई. में मान्धाता में पत्थर की एक पेटी में मिले थे। इनका उल्लेख ज्ञान प्रकाश, पूना एवं १९०७ में सुबोधसिंधु, खण्डवा में किया गया। कीलहान ने इनका सम्पादन एपि. इं., भाग ९, पृष्ठ १०३-११७ पर किया। ये केन्द्रीय संग्रहालय, नागपुर में सुरक्षित हैं। ताम्रपत्र आकार में ४५ x ३१ सें. मी. । अभिलेख प्रथम व तीसरे ताम्रपत्र पर एक ओर व दूसरे पर दोनों ओर उत्कीर्ण है। इनमें दो-दो कड़ियां पड़ी हैं। अभिलेख ८० पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर १९, दूसरे पर १९ व २१ एवं तीसरे पर २१ पंक्तियां हैं । अक्षर सुन्दर हैं, परन्तु बाद में कहीं कहीं पर काट कर या मिटा कर ठीक किये गये हैं। इस कारण छेनी के कुछ व्यर्थ के निशान बन गये हैं। ऐसे निशान तीसरे ताम्रपत्र पर अधिक हैं। इसी पर नीचे दाहिनी ओर गरुड़ का रेखाचित्र बना है। वह हाथ जोड़े है एवं उसके दोनों ओर फन फैलाये दो नाग बने हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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