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________________ परमार अभिलेख ५३. क्षुद्र विचार वालों का स्तुत्य जो सत्य लोकाधिपत्य एवं जो अणिमा आदि सिद्धियां चंचल चित्तों द्वारा चाही जाती है, वह सब कुछ, हे मदनदहन, आपके चरणोपासक एवं तत्वज्ञान का रसास्वादन करने वाले योगियों को विघ्नरूप ही होते हैं। ५४. हे त्रिनयन, (उपासक के लिये) दिगम्बर होना, पृथ्वी पर सोना, ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना, पवित्रता के लिए भस्म धारण करना, मौनव्रत धारण करना, दण्ड ग्रहण करना, भिक्षा मांग कर भोजन करना तथा वैराग्य वृत्ति धारण करना आदि व्रत धारण करने पर भी यदि तत्वज्ञान नहीं है तो सब व्यर्थ है जैसे बिना नमक के पदार्थ स्वादरहित होता है। ५५. कर्मयोग से ब्रह्मलोक या इन्द्रादि लोकों में चिरकाल तक रहने पर भी पुण्य क्षीण होते ही वहां से निपतन अवश्यंभावी है, परन्तु मानवों को वह शिवज्योति समस्त कर्म-विपाकों को नष्ट करने वाला ज्ञानयोग से सुलभ है। ५६. शताश्वमेध यज्ञ के फल भोगने वाले इन्द्रादिकों को जो सुख स्वर्गलोक में प्राप्त होता है वही सुख नरक में निवास करने वाले कीटादिकों को भी प्राप्त होता है, दोनों सुख समान प्रतीत होते हैं । द्वन्दभाव से ग्रस्त इस त्रैलोक्य में कहीं भी अत्याधिक सुख या दुख नहीं प्राप्त होते । परन्तु हे भगवन् , आप तो इस द्वन्दबाधा से मुक्त हैं। ५७. मानवों का संसार बंधन नष्ट होते ही जो आपसे तादात्म्य हो जाता है, यदि वही मुक्ति है तो हे भगवन् उससे क्या प्रयोजन ? तादात्म्य होने के बाद भले ही अन्धकूप में गिरू, आप मेरे स्वामी हैं और मैं सर्वदा आपका सेवक हूं। सेवक कभी स्वामी के पद की कामना नहीं करता। ५८. वायु से कंपित कमलिनी पत्र पर स्थित रहने वाले जल के समान चंचल इस मानव जीवन पर कौन विश्वास करे। हे भगवन्, सुन्दर स्त्रियों के प्रिय सहवासों में गाढ़ आलिंगन में मेरा मन संलग्न न हो ऐसी कृपा कीजिये। ५९. हे त्रिनयनदेव, कामदेव आपके नेताग्नि के पुरातन संबंध को स्मरण करके बैर का बदला लेने के लिए प्रदानशील होता हुआ सेवा के अनुराग से आप में संलग्न हुए मेरे मन पर बाणों से प्रहार कर रहा है, प्रयत्नपूर्वक मेरी रक्षा कीजिए। ६०. हे भगवन्, भिक्षापात्र, मृगचर्म, पुरानी लंगोटी और मार्ग में पड़े चिथड़े की छोटी चादर ये मेरी सामग्री है, मैं चाहता हूं आपके अनुग्रह से आपके चरणों में विपुल भक्ति एकमात्र बनी रहे। ६१. हे भगवन् समस्त सृष्टि का सार आप ही हैं। इस देवलोक के परम उत्कर्ष द्योतक आप हैं। हे कामदेव को भस्म करने वाले महादेव, संसार में आपका महात्म्य तो महादेव नाम से विख्यात है । इस प्रकार चरम उत्कर्ष को पहुंचे हुए आपकी स्तुति मैं क्या करूं? ६२. काल के द्वारा ले जाए गए हुए प्राणी पुन: लौट कर जन्मग्रहण करते हैं और महाकाल द्वारा ले जाया गया हुआ फिर लौट कर नहीं आता, मुक्त हो जाता है । ६३. शिशुओं की अस्पष्ट अक्षरों की तोतली बोली भी गुरुजनों को प्रिय लगती है, इस कारण गुणरहित मेरे वचन आपको संतोष कारक होंगे। आपके गुण वर्णन से मैं थका हूं, जो भी कुछ पुण्य मैंने सम्पादित किये हैं, उनसे अगले जन्म में भी मेरी आप में ही पूर्ण भक्ति होगी। ६४. दक्षिण राढ़ीय देश के नवग्राम से आये हुए हलायध नामक पंडित ने यह शिवस्तुति रची। ६५. प्रथम महादेव, द्वितीय महेश्वर, तृतीय शंकर, चतुर्थ वृषभध्वज पंचम कत्तिवान, षष्ठ काम-नाशी. सप्तम देव-देवेश, अष्टम श्री कण्ठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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