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________________ परमार अभिलेख अयले श्लोक में बेत्रावती नदी का उल्लेख है। दूसरे, प्रस्तुत अभिलेख का भारी प्रस्तर खण्ड इसके प्राप्ति स्थान तक कहीं दूर से लाये जाने की संभावना भी न्यून ही है। अगले तीन श्लोकों क्र. ७-९ में मंदिर के पास एक सुन्दर उद्यान के बनाने का विवरण है। अगले दो श्लोकों में नरेश का गुणगान है। श्लोक क्र. १२ में मंदिर के चिरस्थाई होने की कामना है। श्लोक क्र. १३ के पूर्वार्द्ध में नरेश त्रैलोक्यवर्मन् का उल्लेख है, उत्तरार्द्ध नष्ट हो गया है। दान के समय नरेश उत्तरपट्टक में स्थित था। यह नाम कुछ विचित्र लगता है। यदि छन्द की सुविधा हेतु यहां पट या पटक के स्थान पर पट्टक का प्रयोग है, तो कहा जा सकता है कि नरेश उत्तर में किसी शत्रु के विरुद्ध अभियान में वहां शिविर लगाये हुए था। आगे एक वाक्य गद्य में है। इसमें कहा गया है कि व्यवसायिक वस्तुओं का भार उठाये प्रत्येक बैल (प्रतिवृषभारं) पर एक विसोपक कर लगेगा। यह कर निश्चित ही मंदिर के लाभार्थ लगाया गया था। विंशोपक सिक्का मूल्य में द्रम्म सिक्के के २०वें अंश के बराबर होता था। संभवतः मंदिर के लिये एक गांव भी दान में दिया गया था जिसका नाम श्लोक क्र. १३ के उत्तरार्द्ध में लुप्त हो गया । अगले श्लोक में इस अभिलेख को प्रशस्ति कहा गया है एवं इसकी प्रशंसा की गई है। लेखक का नाम भग्न हो गया है। उत्कीर्णकर्ता सूत्रधार वासुदेव था जिसको बुद्धिमान कहा गया है। इस प्रकार यह अभिलेख त्रैलोक्यवर्मन् का है जिसको 'नृपति' की उपाधि है। संभवतः टूटे भाग में उसके पूर्वजों एवं वंश का नाम रहा हो। पूर्ववणित ग्यारसपुर अभिलेख (क्र. ५०) में उसको महाकुमार की उपाधि से विभूषित किया गया है। ग्यारसपुर विदिशा से उत्तरपूर्व में ३२ कि.मी. है। इस प्रकार दोनों अभिलेखों के प्राप्ति स्थानों के एक ही भूभाग में स्थित होने से नृपति दैलोक्यवर्मन् की एकात्मकता ग्यारसपुर अभिलेख के महाकुमार त्रैलोक्यवर्मन् से करना युक्तियुक्त है। पूर्ववणित भोपाल ताम्रपत्र (क्र. ५१) में महाकुमार हरिचन्द्रदेव स्वयं का आधिपत्य महाकुमार त्रैलोक्यवर्मन् की कृपा से प्राप्त करने की घोषणा करता है। इन सभी विवरणों के आधार निष्कर्षरूप कहा जा सकता है कि अपने भतीजे हरिचन्द्र के अल्पव्यस्क होने पर उसका चाचा त्रैलोक्यवर्मन् संरक्षक बन, 'महाकुमार' उपाधि धारण कर, शासनसूत्र संभालने लग गया। तभी तो भोपाल ताम्रपत्र में हरिचन्द्रदेव अपने सिंहासन की प्राप्ति 'महाकुमार' त्रैलोक्यवर्मन् की कृपा से होने की घोषणा करता है। लोक्यवर्मन् का केवल यही एक तिथियुक्त अभिलेख प्राप्त है। प्रस्तुत अभिलेख उसके भतीजे महाकुमार हरिचन्द्रदेव के ११५७ ई. के ताम्रपत्र अभिलेख से दो वर्ष बाद का है। इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हरिचन्द्र को सिंहासन सौंपने के साथ ही त्रैलोक्यवर्मन् की महाकुमार की उपाधि का अन्त हो गया। अब वह 'नपति' की सामान्य उपाधि का उपयोग करने लगा। प्रस्तुत अभिलेख के समय वह किसी शत्रु के विरुद्ध अभियान चला कर साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखने में व्यस्त था। भौगोलिक स्थानों में वेत्रावती वर्तमान बेतवा नदी है जो विदिशा के पास से बहती है। उत्तरपट्टक यदि किसी स्थान का नाम है तो उसका तादात्म्य संभव नहीं है। (मूल पाठ) (श्लोक १, २, ५, ६, ८, १३ अनुष्टुभ ; ३,७ शार्दूलविक्रीड़ित; ४ वसन्ततलिका; १०. मन्दाक्रान्ता; ११, १४ शिखरनी; १२ रथोद्धता; ९, १५ आर्या) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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