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________________ विदिशा अभिलेख २१५ देव व ब्राह्मण को दी गई भूमि का राजा को हरण न करना चाहिये, क्योंकि वेश्या के समान यह न किसी के साथ जाती है व न ही चिरस्थायी होती है ॥ ८ ॥ ३८. यह प्राचीन मुनियों द्वारा प्रणीत वचनों की परिपाटी सुन कर उससे उत्पन्न विपुल विवेक के उदय से माता ३९. पिता व स्वयं के पुण्य व यश की अभिवृद्धि के लिये ( दान दिया ) । यह जान कर हमारे वंश में तथा अन्यों में उत्पन्न होने वाले किसी भी धर्मचिन्तक नरेशों को इस धर्म (दान) को लुप्त न करना चाहिये || ९ || ४०. दूतक मुख्यादेश है । कल्याण हो । महालक्ष्मी मंगल करे । ४१. ये स्वयं महाकुमार श्री हरिचन्द्र देव के हस्ताक्षर हैं । श्री ।। (५२) विदिशा का त्रैलोक्यवर्मन् का प्रस्तरखण्ड अभिलेख ( संवत् १२१६ = ११५९ ई.) प्रस्तुत अभिलेख विदिशा में जैन मंदिर के सामने एक निवास के मुख्य द्वार पर लगी प्रस्तर शिला पर उत्कीर्ण है । यह काफी खण्डित अवस्था में है। इसका प्रारम्भिक काफी भाग टूट गया है । इसका आकार १२६.५x९० से. मी. है । इसमें ९ पंक्तियां शेष हैं। इनमें भी पंक्ति १ प्रायः ध्वस्त है । पंक्ति २-४ के मध्य में, पंक्ति ६-८ के अन्तिम कुछ भाग क्षति - ग्रस्त हैं । इन क्षतियों के होते हुए भी अभिलेख महत्वपूर्ण है । इसके अक्षरों की बनावट १२वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर सुन्दर व गहरे खुदे हैं। इनकी सामान्य लम्बाई १.५ सें. मी. है । भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है। पंक्ति ८ में दान वाले भाग व पंक्ति ९ में तिथि वाले भाग को छोड़ कर, सारा अभिलेख पद्यमय है । इसमें १५ श्लोक विभिन्न छन्दों में हैं। सभी श्लोक सुन्दर ढंग से साहित्यिक भाषा में रचे गए हैं। श्लोकों में क्रमांक नहीं हैं । व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व श के स्थान पर स, ख के स्थान पर ष, म् के स्थान पर अनुस्वार, अनुस्वार के स्थान पर म् का प्रयोग किया गया है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा बना दिया गया है । ये सभी काल व प्रादेशिक प्रभावों को प्रदर्शित करते हैं । तिथि अन्त में संवत् १२१६ चैत्र वदि १२ है । दिन का उल्लेख नहीं है । यह बुधवार 9 अप्रेल, ११५९ ई० के बराबर निर्धारित होती है। अभिलेख का मुख्य ध्येय नरेश त्रैलोक्यवर्मन् द्वारा विष्णु के सुन्दर मंदिर का निर्माण करवा कर उस हेतु दान का उल्लेख करना है । उपलब्ध खण्ड में प्रथम पंक्ति का प्रायः तीन-चौथाई भाग नष्ट हो गया है। इसमें लिखे जा सकने वाले अक्षरों की गणना करने पर कहा जा सकता है कि प्रथम श्लोक अनुष्टुभ छन्द में रहा होगा । दूसरे श्लोक का प्रथमार्द्ध भी नष्ट हो गया है। उत्तरार्द्ध में किसी नरेश का विवरण प्रतीत होता है । यह भी अनुष्टुभ छन्द में है। श्लोक क्र. ३ में उसी नरेश की प्रशंसा है । अगले दो श्लोकों में उसके द्वारा वराह रूपी मुरारी (विष्णु) के विशाल मंदिर के बनवाने का उल्लेख है । श्लोक क्र. ६ में उसमें विविध आयुधों से युक्त विष्णु की प्रतिमा की स्थापना का उल्लेख है । इन पंक्तियों से यह ज्ञात नहीं होता कि उक्त मन्दिर का निर्माण कहां पर करवाया गया था। फिर भी संभावना यही है कि यह विदिशा में ही कहीं पर था क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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