________________
२९०
परमार अभिलेख
लम्बाई २३ से ३ सें. मी. है, परन्तु बनावट में अत्यन्त भद्दे हैं। उत्कीर्णकर्ता ने अपना कार्य अत्याधिक शीघ्रता में घसीट कर सम्पादित किया प्रतीत होता है।
भाषा संस्कृत है व गद्यमय है। परन्तु त्रुटियों से भरपूर है। वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, ख के स्थान पर ष, घ के स्थान पर द्ध, ह के स्थान पर घ एवं म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है । संधि का लोप भी है। इनमें कुछ त्रुटियां काल व प्रादेशिक प्रभाव की द्योतक हैं एवं कुछ लेखक व उत्कीर्णकर्ता की असावधानी से बन गई हैं।
तिथि प्रारम्भ में संवत् १३२६ वैशाख सुदि ७ बुधवार पुष्प नक्षत्र लिखी है। यह बुधवार १० अप्रेल, १२६९ ई. के बराबर है । प्रमुख ध्येय जयसिंहदेव द्वितीय के शासनकाल में गौडवंशीय पंडित रणसिंह द्वारा वडोव्यपत्तन में एक वाटिका का उद्यापन करवाने हेतु कुछ भूमि के दान करने का उल्लेख करना है।
अभिलेख का प्रारम्भ ओं से होता है जो एक चिन्ह द्वारा अंकित है । पंक्ति २-३ में समस्त राजावली समेत जयसिंहदेव के शासन करने का उल्लेख है । पंक्ति ४-६ में गौड वंश में उत्पन्न पंडित दोदे के पौत्र, पंडित महणसिंह के पुत्र पंडित रणसिंह द्वारा वाटिका के उद्यापन हेतु भूदान का विवरण है। यह वाटिका वडोव्यपत्तन में स्थित थी। कल्याणसूचक 'श्री' के साथ अभिलेख का अन्त होता है।
अभिलेख का महत्व इस तथ्य में है कि इसमें नरेश जयसिंहदेव का अपने अधीन राजाओं के साथ उल्लेख किया गया है। वह १२६९ ई. में शासन कर रहा था। अभिलेख का प्राप्तिस्थल उसके साम्राज्य में सम्मिलित था। परन्तु इसमें उसके वंश अथवा पूर्वाधिकारी का कोई उल्लेख नहीं है। इस कारण उसके समीकरण में कुछ शंका उपस्थित की गई है। वास्तव में पूर्ववणित अभिलेखों के साक्ष्य के आधार पर हमें ज्ञात है कि उदयपुर (भोपाल) का सारा ही भूभाग उदयादित्य के समय से ही परमार-साम्राज्य के अन्तर्गत रहा है। पठारी उदयपुर से केवल ११ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। जयसिंहदेव द्वितीय के पूर्वज देवपालदेव के भी उदयपुर से दो अभिलेख (क्र. ६६-६७) प्राप्त हुए हैं। "समस्त राजावली सहित" वाक्यांश पूर्वकालीन अनेक परमार अभिलेखों में प्राप्त होते हैं। इन सभी तथ्यो के आधार पर यह स्वीकार करना युक्तियुक्त है कि प्रस्तुत अभिलेख का जयसिंहदेव वास्तव में परमार वंशीय नरेश जयसिंह (द्वितीय) ही है।
दानकर्ता रणसिंह, पिता महणसिंह एवं पितामह दोदे के नामों के पूर्व 'पं' अक्षर लगा है। ए.रि. ई. ए., १९६३-६४, क्र. सी-२०३१ में "पं" को पंथी का संक्षिप्त रूप माना है। परन्तु दानकर्ता स्वयं को गौड़ वंशीय घोषित करता है जिससे उसका ब्राह्मण होना प्रमाणित होता है। ब्राह्मणों में उस युग में 'सिंह' नामान्त पाया जाता है। अतः यहां 'पं' अक्षर को पंडित का ही संक्षिप्त रूप मानना युक्तियुक्त है।
दान के विवरण में उल्लेख है कि वाटिका के उद्यापन हेतु यह कीर्तिस्थल (दिया गया)। निश्चित ही यहां दान भूमि को कीर्ति स्थल निरूपित किया गया है । परन्तु उपरोक्त ए.रि. इं. ए. में 'कीर्ति' को अभिलेख रूप में माना गया है। वास्तव में कीर्तिस्थल का भाव होता है--"जन सामान्य के उपयोग हेतु स्थान जिससे दानकर्ता को कीर्ति प्राप्त होती है" (देखिए-- का ई. ई., भाग ३, पृष्ठ २१२, पाद. ६)। इस प्रकार यहां वाटिका को कीर्तिस्थल के रूप में प्रदर्शित किया गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org