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________________ मांडू अभिलेख १२. हस्य वृतोत्पराभिरुरसा श्रीगोप... सादशक्तोसि नः एकान्ते परिरभ्यकापि मुदिता गोपीभिरिथ्थं स्फुरद्रोमांचे ननिरस्त शैशवमिषं... १३. पातु वः ।। आपादान्त विलम्बिनीम. . नाभिहृदं . . . कालियं सयमुनं सख्यः क्वयास्यामया अत्युग्रेपि मुखीकृतकम पियो.... . दधत्याहसन् गोप्या गोपजनार्दन: सहरतां मह्यं सुखं यच्छतु ।। क्षीराब्धे .. १४. वृत भृतात्सौवर्णकुम्भानिमान्विन्यासाः पुरतः पयोधरमिवोवृदावने किंस्थिताः ।। सख्यो धर्म.. हारिहृदयं गोपालचौरेण मे अप्येवं परितजितो पि विहसन् कृष्णः शिवायास्तुवः ॥ यो रक्षकरसे मुखेषु विषयप्राप्येष्वना.. तम... १५. रिमाहना परिचिते कृष्णे कथं रम्यते सख्योऽयं म्रियते हटात्तदधिनो सोद्यानिकं सोमुना गोपीनामुपकर्णयन्निति समुद्दाणीः श्रियेमेस्तु सः । श्रीशः श्रीर्भवदेक हृन्निलयिनी तस्याः प्रभां शैस्ततै स्पृष्टाये विहरन्ति कर्म ...... . तैख्यात्मन त्वदेकचरणध्यानैः पुरात्मा कृतः पात्रं पुण्यसुखश्रियां नियतोप्येषां भयं कीदृशं ।। विरचितमिह विष्णोर्दाम वाक्य प्रसूनैश्चरणसततपूजा वाक्कृता विल्हणेन । निरवधि कविसार्थैः कोटिश : १६. २३३ १७. १. २. . विन्ध्यवर्मनृपतेः प्रसादभूः सांधिविग्रहिकविल्हण कविः ।। भौतिकं वपुरवेक्ष्य भुंगुरं निर्ममेऽमरमयं सुवाङ्मयं । विध्यवतनयेन राजता मानितः सुभट भुभुजा वाटिकाद्वयमकारि [सुन्दरम् ] . 1 (अनुवाद) . पुरुषाकार एैक्य को प्राप्त हुआ.... . सूर्य के बिम्ब में मैं प्रणाम करता हूं । सूक्ति प्रसिद्ध नहीं करती, चतुवर्ग सूर्य के प्रसाद से, लक्ष्मी हृदय पर.. उसको ही यहां ले आ, इस प्रकार विमुख हुई, स्वयंभू के द्वारा स्पर्श की गई हुई, जिस एक हृदय से ३. यह मेरी है इस प्रकार से कही गई, पुष्ट होने वाली वह (सरस्वती) मेरा रक्षण करे । विकसित . निश्चय से जानता है, क्या ज्ञात नहीं कि यह माला है, ऐसे बोलने वाले के प्रति हास्य करने वाली कमल... ४. लक्ष्मी के द्वारा आलिंगित हरि तुम्हारा पालन करे । धर्म का नाश करने वाले... मत्स्यराज के तल से, और समस्त समुद्र का व्याप्त जल जब क्षुब्ध हो गया था । समुद्र के पद रूपी आकाश में सूर्य चन्द्रता को प्राप्त हुआ, चतुर्मुख ब्रह्मदेव के मुख से उद्भूत हुई शब्द ज्योति ५. संकट से मेरा रक्षण करे। पर्वत, धरती एवं वृक्षों सहित डूबने वाली पृथ्वी को हृदय पर स्थापित करने वाले, जिनकी कोख में समस्त भुवन विलीन हो गये, पाताल में चरणों को स्थापित करने वाले, सप्त समुद्रतल को घेरने वाले, ऐसी वराहाकृति कूर्माकार से अपनी पीठ पर वहन करता हुआ, भ्रांतिवश जो जलचरों में उत्पन्न हुआ। वह ६. अच्युत (विष्णु) मेरी पीड़ा को दूर करे। भूमण्डल जब डूब रहा था तब एक क्रीड़ा के बहाने से वराह अवतार ने उसका उद्धार किया, कीर्ति को निर्देशित करती हुई जिसके दांतों पर स्थित रही वह पृथ्वी जिसके रोम रोम में स्थित है ऐसा वराह आपकी पीड़ा को दूर करे | कल्पान्तकालीन मेघ ७ के समान जिसकी गर्जन है, अग्निज्वाला के समान जिसके नेत्र हैं, जिसने आकाश के तारों को विखेर दिया, प्रल्हाद के रक्षण के हेतु . . अद्भुत स्वरूप श्री वराह की आकृति वाला, जिसने ऊपर गर्दन उठाई (हिरणकशिपु) . . जिसकी बिजली के समान चमकने वाली जिव्हा है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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