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२३.
२४.
अस्मल्कुलक्रममुदारमुदाहरद्भि - रण्यै ( न्यै ) -
श्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयं ( यम् ) । लक्ष्म्यास्तद्विलयवुदु (बुद्बु) दचंचलाया दानं फलं परयशः परिपाल
सव्र्व्वानेतान् भाविनः पार्थिवेन्द्रान् भूयो भूयो याचते रामभद्रः । सामान्योयं धर्म्मसेतुर्नृ
( अनवाद)
११.
परमार अभिलेख
नं च । । [ ७॥ ]
१. ओं । स्वस्ति । जय व अभ्युदय हो ।
जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति के हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, आकाश ही जिसके केश हैं, ऐसे शिव की जय हो || १ ||
प्रलय काल में चमकने वाली विद्युत् की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु शिव की जटायें तुम्हारा सदा कल्याण करें || २ ||
३. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वाक्पतिराज देव के
४. पादानुध्यायी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सिंधुराज देव के पादानुध्यायी ५. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक
६. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री उदयादित्य देव कुशल युक्त होकर चञ्चुरीणी मंडल के अन्तर्गत...
11[5]11
७. -- रद्रहद्वादशक में श्री कोशवर्द्धन दुर्ग में श्री सोमनाथ देव के भोग के लिए
८.
विलापक ग्राम में आये हुए समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आसपास के निवासियों, पटेलों और ग्रामीणों को आज्ञा देते हैं--आप को विदित हो कि कर्पासिका ग्राम में ठहरे हुए हमारे
९.
द्वारा...
१०. अधिक ग्यारह सौ संवत्सर में चैत्रसुदि चतुर्दशी को दमनक पर्व पर स्नान कर, चर व अचर के स्वामी भगवान
भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर संसार की असारता देखकर, तथा-
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इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है ||३||
घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धारा ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता ॥४॥
१४. इस जगत का विनश्वर स्वरूप समझ कर अदृष्टफल को स्वीकार कर चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी
के रहते तक
१५. परम भक्ति के साथ श्री कोशवर्द्धन दुर्ग में श्री सोमनाथ देव के लिए ऊपर लिखा ग्राम अपनी सीमा तृण भूमि
१६. गोचर तक साथ में वृक्षों की पंक्तियां सहित, साथ में हिरण्य भाग भोग उपरिकर और सब प्रकार की आय सहित, माता पिता व स्वयं
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१७.
के पुण्य व यश की वृद्धि के हेतु राजाज्ञा द्वारा जल हाथ में लेकर दान दिया है। उसको मान कर आसपास के निवासियों व ग्रामीणों के द्वारा
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