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________________ "हरसूद अभिलेख २४९ अभिलेख की तिथि गद्य व पद्य में अंकित है जो संवत् १२७५ मार्गशीर्ष सुदि ५ शनिवार है । यह शनिवार २४ नवम्बर, १२१८ ई. के बराबर है । इसका प्रमुख ध्येय धारा नगरी में शासनकर्ता नरेश देवपालदेव के राज्य में हर्षपुर में केशव नामक एक व्यापारी द्वारा शिव मंदिर के निर्माण करवाने का उल्लेख करना है । यद्यपि यह एक निजि अभिलेख है, तथापि राजकीय अनुमति प्राप्त कर के ही निस्सृत किया गया होगा । पंक्ति ४-५ में धारा नगरी में देवपालदेव के राज्य करने का उल्लेख है जिसके नाम के साथ अत्यन्त लम्बी राजकीय उपाधियां लगी हैं -- " समस्त ख्याति से युक्त, प्राप्त किये हुए पांच महाशब्दों के अलंकारों से शोभायमान, परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर, परममाहेश्वर श्री लिम्बर्य के प्रसाद एवं वरदान से प्रताप को प्राप्त करने वाला ।" श्लोक क्र. ६-९ में दानकर्ता व्यक्ति के वंश का ब्यौरा है । इसमें उन्दपुर के निवासी दोसि विल्हण एवं ढल पिता-पुत्र श्रृंखला में लिखे हैं । ढल के छोटे भाई केशव ने वहां शिव मन्दिर एवं तालाब बनवाया। उसके पास हनुमान, क्षेत्रपाल, गणेश, कृष्ण, नकुलीश व अम्बिका की प्रतिमायें स्थापित की। अभिलेख अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यह देवपालदेव का प्रथम प्राप्त अभिलेख है । इसमें यद्यपि उसके वंश का उल्लेख नहीं है, परन्तु इसकी तिथि, प्राप्ति स्थल एवं नरेश की उपाधियों के आधार पर इसको परमार राजवंशीय नरेश देवपालदेव माना जा सकता है। उसका पिता महाकुमार हरिश्चन्द्रदेव एवं बड़ा भाई महाकुमार उदयवर्मन् था। प्रतीत होता है कि उदयवर्मन् निःसंतान मर गया । अतः देवपालदेव उसका उत्तराधिकारी बना। इस प्रकार वह भोपालहोशंगाबाद - निमाड़ क्षेत्र का स्वामी बन गया। इसी बीच संभवतः संवत् १२७३ तदनुसार १२१६ ई. में धार में राजवंशीय नरेश अर्जुनवर्मन् की भी निःसंतान मृत्यु हो गई । अन्य कोई उत्तराधिकारी न होने के कारण, देवपालदेव को राजसिंहासन सौंप दिया गया। इस प्रकार संयोगवश देवपालदेव द्वारा परमार राजवंश की दोनों शाखाओं को मिलाकर एक कर दिया गया । इस संभावना की पुष्टि अभिलेख में देवपालदेव की लम्बी उपाधि से होती है। यहां देवपालदेव अपने पिता व बड़े भाई की महाकुमारीय कनिष्ट उपाधि 'समस्त प्रशस्तोपेत समधिगत पञ्चमहाशब्दालंकार' को धारण कर विराजता है, और इसके साथ ही राजवंशीय उपाधि 'परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर' से भी अपने को विभूषित करता है। इसके अतिरिक्त वह स्वयं को 'परममाहेश्वर' घोषित करता है। साथ ही यह भी कि उक्त सभी "देवी लिम्बार्य के प्रसाद व वरदान से" प्राप्त हुआ। प्रभाचन्द रचित प्रभावक चरित् में लिम्बजा ( लिम्बार्य ) को नरेश की वंश-देवी लिखा है (सम्पादन मुनि जिनविजयजी, पृष्ठ १४३ ) । यह देवपालदेव का प्रथम प्राप्त अभिलेख है । अगले १२२५ ई. के मांधाता अभिलेख (क्र. ६५) में वह केवल राजवंशीय उपाधि ही धारण करता है। कनिष्ठ उपाधि त्याग देता है । भौगोलिक स्थानों में धार सुविख्यात है । हर्षपुर आधुनिक हरसूद है जहां से अभिलेख प्राप्त हुआ था। उन्दपुर छोटी तवा पर स्थित उन्दवा ग्राम है जो हरसूद से पश्चिम को ८ कि. मी. है। ( मूलपाठ ) १. ओं नमः शिवाय ॥ २. Jain Education International सर्व्वकर्म समारम्भे गीर्व्वाणैर्यो नमस्कृतः । सं मया पार्व्वतीपुत्रो हेरंव: ( ब ) स्तूय - तेऽनिशं ॥१॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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