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परमार अभिलेख
(७९) भिलसा से प्राप्त छित्तप विरचित सूर्य-प्रशस्ति प्रस्तर-खण्ड अभिलेख . ____ प्रस्तुत सूर्य-प्रशस्ति एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण है जो प्रायः ४० वर्ष पूर्व भिलसा में खण्डहरों में प्राप्त हुआ था। इसका उल्लेख ए. रि. आ. डि. ग., संवत् १९४२-४६, पृष्ठ २५ एवं पृष्ठ ६९ क्र. २; ग. रा. अभि. द्वि., १९४७; एपि. इं., ३०, १९५३-५४, पृष्ठ २१५ व आगे; एवं आल इंडिया ओरियंटल कांफ्रेंस, पुरातत्व विभाग, वाराणसी अधिवेशन में हरिहर त्रिवेदी द्वारा पढ़े गये लेख में है।
अभिलेख का आकार ९६.५४ २८ सें. मी. है। प्रस्तर खण्ड भग्नावस्था में है। सभी पंक्तियों के प्रारंभिक कुछ अक्षर क्षतिग्रस्त हो गये हैं। इसी प्रकार प्रारम्भिक भाग भी भग्न हो गया है। यह कहना सरल नहीं है कि शुरू का कितना भाग टूट गया है। वर्तमान में प्राप्त भाग को ही क्रमांक देकर पाठ प्रस्तुत किया गया है।।
अभिलेख की लिखावट ११वीं-१२वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षरों की लम्बाई २ से ३ सें. मी. है। ये सावधानीपूर्वक सुन्दर ढंग से खोदे गये हैं। भाषा संस्कृत है। अंतिम पंक्ति में लेखक व लिखवाने वाले व्यक्ति के नाम को छोड़, सारा अभिलेख पद्यमय है। प्रस्तुत खण्ड में अनुष्टुभ छन्द में २३ श्लोक हैं। श्लोकों में क्रम संख्या नहीं है। व्याकरण के वर्ण विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, र के बाद का व्यञ्जन दोहरा, म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया गया है। ये सभी प्रादेशिक व काल के प्रभावों के द्योतक हैं।
___अंतिम श्लोक में इसको स्तुति निरूपित किया गया है। सभी श्लोक सूर्यदेव को संबोधित किये गये हैं एवं प्रत्येक श्लोक स्वयं में पूर्ण है। मोटे रूप से श्लोकों को समूहों में विभाजित किया जा सकता है यद्यपि ये समूह पूर्णतः सही नहीं हैं। श्लोक १-१० में सूर्यदेव के तेज का वर्णन है। श्लोक ११-१५ में उसके विभिन्न प्रभावों को प्रदर्शित किया गया है । श्लोक १६-२० में कुछ इसी प्रकार का वर्णन है, जबकि श्लोक २१-२३ में उसको प्रसन्न करने हेतु उल्लेख है।
प्रथम दो श्लोक प्रस्तर खण्ड के क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण पूर्णतः नष्ट हो गये हैं। श्लोक ३ का केवल चतुर्थ पाद व कुछ अन्य अक्षर शेष हैं जिनके आधार पर कुछ निश्चित नहीं किया जा सकता। संभवत: यहां यह भाव रहा होगा कि प्रस्तुत स्तुति निजि ध्येय को ध्यान में रखकर नहीं रची गई। श्लोक ४ का उत्तरार्द्ध शेष है जिसके अनुसार सूर्य किसी अन्य तेजयुक्त व्यक्ति के नाम को भी सहन नहीं करता। श्लोक ५ में अगस्त्य मुनि का उल्लेख है जिसने एक बार में ही सातों समुद्रों का जल पी डाला एवं अन्य शक्तिशाली तारागण सूर्य से तेज प्रदान करने हेतु प्रार्थना करने लगे। यह सर्वविदित है कि सभी तारागण सूर्य से तेज प्राप्त करते हैं। यहां राजव्याजेन का भाव “चमक के भाव से" एवं भर्तुं का भाव “उनके (उदर) भरण हेतु" है। एक याचक अनेक प्रकार से याचना करता है। यहां राग का भाव “अनुराग" है।
श्लोक ६ के अनुसार सूर्य के अनुज विष्णु (आदित्य) के तेज के कारण उस (सूर्य) से ईर्ष्या करने पर राहू का सिर काट डाला', परन्तु वध नहीं किया, जिससे वह शिरोच्छेदन का कष्ट महसूस करता रहे। श्लोक ७ में वर्णन है कि सूर्य की रश्मियों का तेज क्रूर वस्तुओं पर क्रूर व निर्मल वस्तुओं पर निर्मल पड़ता है । इसका उत्तरार्द्ध कुछ भग्न है परन्तु लगता है कि यह भाव आगे भी चालू है। इसके अनुसार चन्द्र व अग्नि पर पड़ी सूर्य की रश्मियां उसी प्रकार मधुर व तीक्ष्ण प्रभाव डालती हैं (सूर्य के तेज के कारण ही अग्नि में चमक है-रघुवंश ४.१) । श्लोक ८ के अनुसार शेषनाग के फण पर स्थित मणियों, समुद्र के मोतियों एवं आकाश के तारागणों में सूर्य की ही चमक है। श्लोक ९ में उल्लेख
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