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________________ २२० परमार अभिलेख नरेश की वंशावली में सर्वश्री उदयादित्य, नरवर्मदेव, यशोवर्मदेव, जयवर्मदेव एवं हरिश्चंद्र देव के नाम हैं। इनमें प्रथम चार नरेश पिता-पुत्र शृंखला अनुसार हैं। इनके नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हैं। परन्तु अंतिम के नाम के साथ महाकुमार की कनिष्ठ उपाधियां ही लगी हैं। साथ में लिखा है कि हरिश्चन्द्रदेव ने जयवर्मदेव के प्रसाद से राज्य-आधिपत्य प्राप्त किया था। अन्त में उसके पिता का नाम महाकुमार श्री लक्ष्मीवर्मदेव दिया हुआ है। परन्तु पूर्ववणित अभिलेख (क्र. ५१) में हरिश्चन्द्रदेव राज्य की प्राप्ति महाकुमार त्रैलोक्यवर्मन् के चरणों के प्रसाद से प्राप्त करने की घोषणा करता है एवं जयवर्मदेव का कोई उल्लेख ही नहीं करता। ऐसा प्रतीत होता है कि महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् की मृत्यु के समय उसका पुत्र हरिश्चन्द्र अल्पव्यस्क था। इस कारण उसका चाचा त्रैलोक्यवर्मन् संरक्षक बन कर उसके नाम से शासन सूत्र संभालने लग गया। बाद में जब हरिश्चन्द्र वयस्क हो गया तो उसको राजसिंहासन सौंप कर त्रैलोक्यवर्मन् उसकी सहायता करने लगा। इसी कारण संवत् १२१४ के उपरोक्त अभिलेख (क्र. ५१) में हरिश्चन्द्र राज्य की प्राप्ति हेतु त्रैलोक्यवर्मन् के प्रति आभार प्रदर्शित करता है। जयवर्मदेव धार में राजवंश का सम्राट था और संभवतः त्रैलोक्यवर्मन् के माध्यम से हरिश्चन्द्र ने सम्राट से अपने शासन की अनुमति प्राप्त की थी । परन्तु प्रस्तुत अभिलेख के समय तक त्रैलोक्यवर्मन् की मृत्यु हो चुकी होगी, अतः हरिश्चन्द्र केवल नरेश जयवर्मन् के प्रति आभार प्रदशित करता है। अभिलेख के अन्त में हस्ताक्षर करते समय महाकूमार हरिश्चन को ‘परमार कूलरूपी कमल का सूर्य' घोषित करता है। इससे अनुमान होता है कि महाकुमार शंखला के शासक धार के राजवंशीय नरेशों के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते थे और उनकी सामान्य अनुमति से ही शासन संभालते थे। दान में दिये गये ग्रामों के आधार पर कहना होगा कि हरिश्चन्द्र ने अपने राज्य को दक्षिण व दक्षिण-पश्चिम की ओर नर्मदा नदी तक होशंगाबाद जिले में विस्तृत करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। वास्तव में तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियां उसके बहुत कुछ अनुकूल बन गई थीं । इस समय त्रिपुरी के कल्चुरि वंश का अन्त हो रहा था। कल्चुरि नरेश गयाकर्ण का पौत्र जयसिंह अथवा परपौत्र विजयसिंह अब गद्दी पर था। इसी प्रकार चन्देलों की ओर से भय भी प्रायः कम हो गया था । क्योंकि चन्देल नरेश परमादिन् (११६६-१२०२ ई.) इस समय उत्तर में व्यस्त था। पश्चिमी चालुक्य भी इस काल में अपने घरेलू झगड़ों में व्यस्त थे। सोमेश्वर चतुर्थ विज्जण के उत्तराधिकारियों से राज्य छीनने में संघर्षरत था। इस कारण सभी ओर से शत्रुओं के आक्रमणों से निश्चिंत होकर महाकुमार हरिश्चन्द्र ने अपने राज्य के विस्तार की योजना बनाकर उसको सफलतापूर्वक कार्यान्वित कर लिया प्रतीत होता है। अभिलेख में निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में नीलगिरी का तादात्म्य आधुनिक नीलगढ़ से किया जा सकता है जो विंध्य के दक्षिण में नर्मदा से उत्तर की ओर १ मील की दूरी पर स्थित है (इंडियन एटलस, शीट क्र. ५५, क्रमांक ए-३) । गुणपुर आधुनिक गोडरपुर है जो नर्मदा के दक्षिणी तट पर स्थित है (वही, क्रमांक ए-४) । पलसवाडा या परसवाडा अथवा सवाडा की समता आधुनिक परसवाडा से की जा सकती है, जो होशंगाबाद जिले में सोहागपुर से दक्षिण पश्चिम की ओर १० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अमडापद्र वर्तमान में छिन्दवाडा जिले में अमरवाडा परगना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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