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परमार अभिलेख
परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हैं। यहां वंश का नाम नहीं है । पंक्ति ५-६ में दान में दिये गये ग्राम का विवरण है। यह दुर्गाई ग्राम था जो भूमिगृह पश्चिम द्विपंचाशत्क के अन्तर्गत था। यह भूमिगृह किसी भूभाग के पश्चिम में स्थित ५२ ग्रामों का समूह रहा होगा।
पंक्ति २७ में 'छ' अक्षर तीन बार लिखा हुआ है जिससे यह अनुमान होता है कि मूल अभिलेख यहां समाप्त हो गया । आगे ताम्रपत्र लिखकर प्रदान करने की उपरोक्त तिथि अंकों में है। फिर 'स्वयमाज्ञा' है। नरेश ने अपनी आज्ञा द्वारा इस दान को घोषणा करवाई थी। फिर मंगल व नरेश के हस्ताक्षर हैं। इसके बाद दापक का नाम श्री जासट है। यह सामान्य रूप से नहीं होता। दापक का नाम पहिले होना चाहिये था। यह शायद उत्कोर्णकर्ता की भूल से हुआ, जिसका नाम नहीं है।
यह कहना कठिन है कि ग्रामदान करने एवं शासनपत्र उत्कीर्ण करवा कर प्रदान करने में प्रायः डेढ़ मास की देरी किस कारण हई। संभव है कि नरेश भोजदेव किसी अन्य कार्य में अथवा किसी यद्ध में व्यस्त रहा हो। परन्त वस्तस्थिति के बारे में जानना कठिन है। यह तथ्य भी विचारणीय है कि किसी परमार राजवंशीय नरेश द्वारा भोपाल क्षेत्र में ग्रामदान करने का साक्ष्य के रूप में यह प्रथम अभिलेख है। इससे पूर्व सभी भूदान गुजरात क्षेत्र में दिये गये थे। इससे इस विश्वास को बल मिलता है कि प्रस्तुत अभिलेख को तिथि १०१८ ई. से पूर्व ही भोपाल क्षेत्र भोजराज के अधीन हो गया था।
अभिलेख में उल्लिखित भौगोलिक स्थानों में धारा नगरी सर्वविदित है। अन्य स्थानों का तादात्म्य बिठाना कठिन है।
मूलपाठ (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
जयति व्योमकेशोऽसौ य: सर्गाय वि (बि) भति तां (ताम्) । ऐन्दवीं शिरसा लेखां जगद्वी (द्वी)जांकुराकृतिम् ।।[१॥] तन्वन्तु वः
स्मराराते: कल्याणमनिशं जटाः।
कल्पान्तसमयोद्दामतडिद्वलयपिङ्गलाः ॥२॥] परमभट्टारक महारा३. जाधिराज-परमेश्वर-श्रीसीयकदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री४. वाक्पतिराजदेव-पादानुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसिंधुराजदेव पादा५. नुध्यात-परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीभोजदेववः कुशली । भूमिगृह-पश्चिम-द्विपंचा६. शत्कान्तःपाति-दुर्गायी-ग्रामे समुपागतान्समस्त-राजपुरुषान्ता (ब्राह्मणोत्तरान्प्रतिनिवासि पट्टकिल ७. नपदादिभिश्च समादिशत्यस्तु वः संविदितं यथा। श्रीमद् धारावस्थिततैरस्माभिश्च तुः
सप्तत्यधिकादशश८. त-संवत्सरे श्रावण-सुदि-पौणिमास्यां गुरौ संजात-सोमग्रहण-पर्वणि स्नात्वा चराचर
गुरुम्भगवन्त९. म्भवानीपत्यं (ति) समभ्यर्च्य संसारस्यासारतां ज्ञात्वा तथा हि
वाताम्रविभ्रममिदं वसुधाधिपत्य मापा१०.
तमात्र मधुरो विषयोपयोगः।
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