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________________ १७० परमार अभिलेख ५०. ४६. कुम्भोत्पन्न अगस्त्य के समान जब उसने दक्षिण की ओर प्रस्थान किया तब चोल आदि उसके सामने अवनत होकर विन्ध्य पर्वत के समान नत हो गये। ४७. जल विहार के समय जिसकी सेना के सामन्तों की रानियों की कटियों पर बंधी मालायें टूट कर गिरती हैं, उनसे पृथ्वी पर जिस ताम्रपर्णी का जल प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ, देखो आज भी वही (जल) पांड्य नरेश के जीवनयापन का साधन बना। ४८.. (जब लक्ष्मदेव समुद्र तट पर पहुंचे तब) जानकार व्यक्तियों द्वारा बड़े आदरपूर्वक कौतूहल से कहा गया कि 'महाराज यह श्री रामचन्द्र का वह सेतु है जो मारुति आदि द्वारा लाये गये पर्वत शिखरों से विरचित, वृद्धि को प्राप्त होता हुआ, विंध्याचल के समान शोभायमान है'। (परन्तु जिस लक्ष्मदेव ने) उसकी उपेक्षा करते हुए सेना के हाथियों से निर्मित पुल से ही जाने का उपक्रम किया। ४९. इसके उपरान्त दोनों दिशाओं को (पूर्व-दक्षिण) का भेदन कर जिसका सफल सैन्य समूह आगे बढने लगा तो अपनी दिशा (पश्चिम) को संकट से रक्षा करने वाले पाश धारण करने वाले अरुण ने पाश का त्याग कर दिया। यद्यपि उसके हाथियों द्वारा समुद्र में सारा जल अगस्त्य के समान अनेकों बार पूर्णरूप से पी लिया गया, परन्तु यह कोई नहीं जान पाया कि मैनाकादि पर्वत कहां स्थित है तिमिंगलादि मत्स्य कहां है और विष्णु कहां सोते हैं । ५१. जिस समुद्र में तिमिंगलादि महामत्स्य सम्मिलित होकर नावों की समानता को धारण करते हैं, व मैनाक आदि पर्वत भी मन्दराचल पर्वत के भ्रमण की शोभा को धारण करते हैं, वही क्रियायें जिसकी सेना के गजराजों के पुष्ट सूंडों के . . . . . . उच्छृखल संचालनों से सम्पन्न होती थी। ५२. इसके उपरान्त मानो अगले नरेश (कुबेर) को असहन करते हुए उसकी दिशा (उत्तर) की ओर प्रयाण करने पर (कुबेर के) शत्रु नरेश, जिन्होंने उसके भय के कारण उत्तर दिशा को ही त्याग दिया था, वे सभी (लक्ष्मदेव के आते ही) निर्भय हो गये। ५३. तब पुन्नाग व पूग आदि के वृक्षों के झुंडों में वनदेवता के समान संचरण करने वाली जिसकी विजयश्री थी व जहां के वृक्ष उसकी कीर्तिवृक्ष हो गये थे, इस प्रकार वन भी, उपवन तुल्य बन गये थे, तथा जो वृक्ष जिसके भुजदण्डों के उग्र संचालनों से लक्ष बनाये गये हुए नरेशों के मस्तक समूहों से झरने वाले रक्त की नदी से सिंचित हो रहे थे। ५४. जिसने खेल २ में ही पराजित किये गये तुरुष्कों के द्वारा भेंट किये गये अश्वों के लेटने के कारण केसरमय धरती नरम पड़ गई ऐसी वंक्ष नदी के तट पर (पड़ाव डाला), सरस्वती के किनारे पर रहने के कारण, जिसने अधिक वाक्चातुर्य प्राप्त कर लिया है, ऐसे वीर नरेश को वाणों के पिंजरे में बन्द कर चाटुकारी के शब्द सिखलाये। ५५. उस पुण्यात्मा (लक्ष्मदेव) ने सूर्यग्रहण के अवसर पर श्रद्धा से विधिपूर्वक व्यापुर मंडल में पूर्व में जो दो गांव जिस (ब्राह्मण) के लिये दिये, उसके पश्चात् उसके भाई नरेश नरवर्मदेव ने तीनों स्थानों की इच्छा द्वारा उसके बदले मोखलपाटक नामक ग्राम आज्ञा द्वारा दिया। ५६. श्री लक्ष्मी (राज्य लक्ष्मी) को धारण करने वाले उस (नरवर्मन) के द्वारा अपने द्वारा रचित अनेक स्तुतियों एवं प्रशस्तियों से चित्रित यह देवमंदिर बनवाया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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