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________________ नागपुर प्रशस्ति १६९ ३७. उसके (दिग्विजय पर) प्रयाण करते हुए पूर्व के नरेशों द्वारा अपने बंधुगण भी त्यागे जाते हैं, दक्षिण के नरेशों द्वारा कातरता के कारण कल्याणकारी कथाओं की उपेक्षा की जाती है, पश्चिम की नरेश अपनी आशा-लताओं का फल अनिष्ट ही है ऐसा निश्चय करते हैं, और उत्तर के नरेशों ने केवल मृत्यु का आलिंगन करना ही श्रेष्ठ माना है (अंतिम पंक्ति कुछ अशुद्ध प्रतीत होती है)। ३८. अद्वितीय हाथियों को पकड़ने की इच्छा से वह पूर्व दिशा की ओर गया, व जैसे ही गौडपति . के नगर में उसने प्रवेश किया वैसे ही इन्द्र भी सहसा शंका करने लग गया। ३९. उत्साहयुक्त व उन्नतिशील उसने जब क्रम से प्रयाण किया, तब त्रिपुरी पर आक्रमण करके व केवल युद्धों में आनन्दित होने वाले शत्रुओं का नाश करके जब उसने रेवा के किनारे वास किया तब उसके तम्बू आनन्ददायक बगीचों की लताओं से आवृत्त, व विंध्य पर्वत के झरनों से संचरित होने वाली वायु से आनन्दपूरित थे। ४०. जब उसके हाथी युद्ध में उत्पन्न होने वाली थकान की रेवा नदी के जल में स्नान द्वारा दूर करते थे तो उनसे उत्पन्न होने वाली लहरें मानो नदी के प्रवाह की परम्परागत लहरों से भी बढ़चढ़ कर होती थी। ४१. उसकी सेना के हाथी जो बहते हुए मद की धाराओं से ढके हुए थे, विन्ध्य पर्वत की तराई में स्थित छोटी पहाड़ियों को भी भेद देते थे जैसे कि वे शत्रुओं के हाथी ही हों, क्योंकि इनके कंपकंपाते विकराल झरने मानो सूड़ें, उनकी आगे झुकी हुई चोटियां मानो गण्डस्थल और उनके कमरबंधों से निकलता हुआ जल मानो बहता हुआ मद ही हो। ४२. जिसने विंध्य की तराई की पहाड़ियों को पार किया जो कि विशाल बांसों की झाड़ियों से आच्छादित भाग पर काटे गये हुए बांसों के नुकीले भागों में संचरण करने वाले खरानों से शीघ्र गति वाली अश्व सेना द्वारा आक्रमण किये गये हैं और जो पहाड़ियां सेना के हाथियों के गंडस्थलों के मदगंध से आकृष्ट अगणित जंगली हाथियों के समूह से श्यामल हो गई हैं। ४३. दिग्गजों के बंधु के समान, प्रलयकालीन अंधड़ से चलायमान पर्वतों की शोभा को धारण करने वाले, अपने साथियों से सूड द्वारा जल बोछार करने की क्रीड़ा से जल वर्षा करने वाले मेघों की शोभा को धारण करने वाले अंग व कलिंग के गजसमूहों ने जिस (लक्ष्मदेव) की सेना के नरेशों के हाथियों के मदगंध-वायु से पराजित होकर युद्ध में हाथ जोड़ लिये, अर्थात दया की प्रार्थना की। ४४. जो भगवान विष्णु श्री (लक्ष्मी) से आश्रित हुए वह पुरुषोत्तम है, जिसने शत्रु बलिराजा के बंधन से सारे जगत को आश्वस्त कर दिया, और जिसने वसुन्धरा धारण की, इस प्रकार आनन्द से अधखुले नेत्रों को धारण करने वाले जिस विष्णु की पूर्व पयोधि में बुधजनों ने मिथ्या स्तुति प्रस्तुत की है। (मिथ्या इसलिये कि लक्ष्मदेव ने उक्त सभी बातें पहिले ही पूर्ण कर दी हैं)। ४५. कल्पाग्नि के धूम्रमंडल के समान काली, मेघमाला से द्वेष करने वाली (अर्थात् इससे भी काली), प्रलयकाल में फैलने वाले अंधकार की मित्र (अर्थात काली) और टूटते आकाश के बंध (अर्थात काला), ऐसी समद्र की लहरों को, यद्ध के परिश्रम के निवारणार्थ, जल में प्रवेश करने के लिये उद्यत, जिसके सामन्तों के हाथियों ने अपनी कालिमा से छोटा कर दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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