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________________ २१८ परमार अभिलेख ------प्रति - --ल - --- -- ८. भाण्डं प्रतिवृषभारं विसो (शो) पकमेककञ्च ददौ ।। अलंकारस्फारां स्फुरितशुचिवृत्ताद्गुणवती प्रस (श) स्तिं सत्कान्तामिव क इह कण्ठे न कुरुते । असौ यस्यामार्यद्विजकुलसि (शि) रोगा- - ---- - - - - - -- - - --॥ [१४] ~~~~~न --- लिखिता [स्था?]न कीत्तिदा । उत्कीर्णा वासुदेवे] न सूत्रधारेण धीमता ॥ [१५] सम्व[त्] १२१६ चैत्र वदि १२ [1] सिद्धेयं (यम्) [1] शिवमस्तु मङ्गलं महाश्रीः ।। (अनुवाद) १. ------------ २. . . . . जिस राजा से अलंकार रूप हुआ. . . निर्मल (वंश में) ३. . . . . जिसके शत्रुओं का शोक निवारण नहीं किया जा सकता था, जिस पवित्र व गुणनिधि को समस्त गुण एकदम प्राप्त होकर प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए थे। ४. उसने वराह अवतार रूपी मुरारी का मंदिर बनवाया जो कीर्तिवृक्ष की जड़ रूप है, लक्ष्मी ___ का फलरूप है, स्वर्ग का मार्गरूप है, (और) संसार सागर के लिये नौका रूप है । (वह मंदिर) चन्द्र के बन्धु समान दैदीप्यमान कान्तियुक्त है। ५. ऐसा प्रतीत होता है कि मानो (चन्द्रकांति युक्त मंदिर शिखर पर बने) सिंह के भय से चन्द्र में स्थित हरिण पलायन कर गया हो। ६. विविध प्रकार के आयुधों से युक्त विश्वमूर्ति विष्णु की मूर्ति इस मंदिर के भीतर प्रतिष्ठा पित की। ७. उसने वेत्रावती के तट पर चन्द्रबन्धु (वसन्त ऋतु) के शस्त्राभ्यास करने का एक भवन रूप, शाखाओं से जटिल, विकसित लताओं के पुष्पपराग पर मंडराने वाली भ्रमर पंक्ति के गुंजारों से मानों धनुष टंकार की शंका उत्पन्न कर रहा हो ऐसे उद्यान का निर्माण किया। ८. जहां खूब विकसित हुई लता का भ्रमरों से युद्ध होने के कारण काले मेघों की भ्रान्ति होने से मुनिगण त्याग कर रहे हैं (अर्थ त्रुटिपूर्ण है)। ९. वृक्षमाला की तलभूमि पर जहां विकसित कलियों के भार से पराग बिखरा है, विश्रान्त करने वाले तरुणों के द्वारा जिस (राजा). की कीर्ति गाई जाती है उस का अनुगान ऊपर बैठे तोतों द्वारा किया जा रहा है। . . . . .. जिस प्रकार कौस्तुभ मणि से विष्णु का वक्षस्थल, अंधकार नष्ट करने वाले चन्द्र से आकाश व विकसित काल से अगाध सरोवर सुशोभित है उसी प्रकार चारों ओर फैली जिस (नरेश) की कीर्ति से वंश सुशोभित हुआ है। ११. सरल स्वभावी जो (नरेश) मान्य श्रेष्ठ व्यक्तियों की परिचर्या करता था व दान देता था, गुणवान जो क्षमा करने व ग्राम दान करने के कारण जिसका जयकार होता था . . . . उससे कोई वस्तु छुपी नहीं। १२. जब तक विष्णु के वक्षस्थल पर कौस्तुभ मणि व शिव के मस्तक पर चन्द्र स्थिर है तब तक यह मंदिर स्थिर रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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