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________________ (३८) प्रचुरता थी। नगरों में मुख्य मार्गों, बाजारों तथा विशाल आवासों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। समरांगण सूत्रधार में राजधानी का विषद् विवरण मिलता है। कुवलयमाला में उज्जयिनी के बाजारों, दुकानों एवं ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं के उल्लेख हैं। शृंगारमञ्जरी कथा में नगर के आनन्दमय परन्तु कपटपूर्ण जीवन का विवरण प्राप्त होता है। तिस पर भी जनता का अधिकांश भाग ग्रामों में ही निवास करता था। उस समय ग्राम प्रायः स्वतंत्र इकाइयों के रूप में थे। ग्रामवासियों की समस्त आवश्यकतायें स्थानीय रूप से पूर्ण हो जाती थीं। ग्रामों में आवासगृह, कृषि भूमि, गोचर भूमि एवं वनभूमि आदि होते थे। ये सदा विविध धान्यों, दुधारू एवं लद्रू पशुओं आदि से परिपूर्ण रहते थे। इसी कारण ग्राम्य' जीवन में सरसता, सरलता, सादापन तथा निष्कपटता व्याप्त रहती थी। ये नगरों के बनावटी जीवन से पूर्णत: अछुते थे। परन्तु ग्रामों में चोरों व लुटेरों के कारण असुरक्षा की भावना सदा व्याप्त रहती थी। प्रत्येक ग्राम में वहां के निवासियों को मिलजल कर अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करना पडती थी। सिंचाई व्यवस्था किसान लोग अपने खेतों की सिंचाई के लिये प्रायः प्रकृति पर निर्भर रहते थे। परन्तु कभी कभी शासन की ओर से नहरों, तालाबों एवं कुओं के खुदवाने हेतु सहायता प्रदान की जाती थी। अभिलेखों में इस सार्वजनिक कार्य हेतु धन प्रदान करने अथवा स्वयं खुदवाकर देने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। वाक्पति द्वितीय ने अपने नाम से मुञ्जसागर तड़ाग खुदवाया था। भोजदेव ने चित्तौड़ के पास भोजताल एवं भोपाल के पास एक विशाल झील बनवाई थी। उदयादित्य ने भी भोपाल के पास उदयपुर में उदयसागर बनवाया था। अमेरा अभिलेख में नरवर्मन् के शासनकाल में शुद्ध व मृदु जल से भरपूर तडाग बनवाने का उल्लेख है। महाकुमार हरिश्चन्द्र ने बावड़ी, कुओं एवं तड़ागों के निर्माण हेतु धन दिया था। आब शाखा के नरेश पूर्णपाल की भगिनि लाहिनि ने १०४३ ई. में एक तालाब बनवाया था। नरेशों की देखादेखी जनसामान्य ने भी इस पुनीत कार्य में योगदान दिया। १०८६ ई. में उदयादित्य के शासनकाल में जन्नक नामक एक तेली पटेल ने चिरिहित में एक तालाब बनवाया। इसी प्रकार भदुन्द के ब्राह्मणों ने एक बावड़ी बनवा कर ग्राम को अर्पित कर दी। शिल्प, व्यापार एवं संघ ____ अभिलेखों में सुनार, लुहार, सुतार, भवन निर्माता, तेली, मतिनिर्माता, उत्कीर्णकर्ता व अन्य अनेक शिल्पियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। प्रायः सभी शिल्पियों ने अपने अपने संघ बना रखे थे। संघ अपने सदस्यों द्वारा निर्मित वस्तुओं के उच्च स्तर का निरंतर ध्यान रखते थे। इसके साथ ही ये संघ अपने सदस्यों के उचित अधिकारों तथा उनके कल्याण का भी ध्यान रखते स काल में नागरिक जीवन में इन संघों का महत्वपूर्ण स्थान था। राज्य भी इन संघों के निर्णयों का सम्मान करता था। व्यापारी वर्ग तथा दुकानदार भी अपने संघों के माध्यम से कार्य करते थे। १०२८ ई. में भोजदेव के शासनकाल में शेरगढ़ अभिलेख में तैलिकराज भाइयाक का उल्लेख है। उसने देवस्वामिन के मंदिर के लिये दान दिये थे। उसी अभिलेख में पूर्व में तीन श्रेष्ठियों ने देवश्री नग्नक के श्रेय हेतु दान दिये थे। ये श्रेष्ठिन् किसी मंडी समिति के सदस्य प्रतीत होते हैं। उदयादित्य के शासनकाल में १०८६ ई. में झालरापाटन अभिलेख से ज्ञात होता है कि तैलिक वंश के पटेल जन्नक द्वारा चार पली तल व अन्य अनेक दान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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