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________________ परमार अभिलेख यहां भोज की उपाधि नरेन्द्रचन्द्र लिखी हुई है । नाम, तिथि, लिपि व अन्य साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है वह मालवा के परमार राजवंशीय नरेश भोजदेव ही हैं। विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर ज्ञात होता है कि भोजदेव ने अपनी राजधानी धारा नगरी में सरस्वती का एक मन्दिर बनवाया था जिसमें उक्त प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गई थी । धार की भोजशाला में सुरक्षित एक प्रस्तर शिला पर उत्कीर्ण महाकवि मदन द्वारा रचित पारिजात-मंजरी उपनाम विजयश्री नामक नाटिका में उसको 'भारती भवन' कहा गया है। प्रबंधकारों ने इसको 'सरस्वती कण्ठाभरण प्रासाद' लिखा है जिसमें कवि धनपाल के काव्य की पद्रिकायें दीवारों पर लगाई गई थीं। तिलकमंजरी की प्रस्तावना में भी इसी प्रकार का उल्लेख है। वर्तमान में सर्वसाधारण इस प्रासाद को भोजशाला कहते हैं । किन्तु प्रभावकचरित्र के सुराचार्य चरितम् में “अथ श्री भोजराजस्य वाग्देवीकुलसदनः” उल्लेख है । इसको पाठशाला भी कहा गया है जहां भोजदेव द्वारा रचित व्याकरण का अभ्यास होता था। साथ ही वहां विद्वत्सभाओं का आयोजन भी होता था जिनकी अध्यक्षता भोजदेव स्वयं किया करते थे। वाग्देवी प्रतिमा ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दन में कैसे पहुंची, इसके बारे में केवल इतनी सूचना प्राप्त है कि १९वीं शताब्दी में किसी समय एक अंग्रेज अधिकारी को भोजशाला के खण्डहरों में उक्त प्रतिमा पड़ी मिली जिसको वह अपने साथ इंग्लैण्ड ले गया। बाद में उसने अपना मूर्ति-संग्रह हिंदुस्टुअर्ट नामक व्यक्ति को बेच दिया। स्टुअर्ट ने मृत्यु से पूर्व अपना पूरा संग्रह क्वीन्स म्यूजियम को भेंट कर दिया। यही संग्रहालय बाद में ब्रिटिश म्यूजियम में परिवर्तित हो गया। सरस्वती प्रतिमा मकराणा काले संगमरमर की बनी हुई है । इसकी ऊंचाई चार फीट है। प्रतिमा का विवरण कुछ इस प्रकार से है। इसके सिर पर मुकुट है जो चार मणिपट्टों, तीन रत्नपट्टिकाओं व नीचे मणिमालायुक्त है तथा करण्डाकार है। पीछे दाहिनी ओर केश-बंध है। बायें कान में ऊपर एक अलंकार है जो दो मणिपट्ट व लोलमणियों से जड़ा है। दाहिना कान ऊपर से टूटा है। दोनों कानों में नीचे कर्णकुण्डल हैं। गले में तीन मणिमालाओं से संकलित अलंकरण पड़ा है । स्तनों पर चोली है । नीचे कटिबंध मेखलाओं की तीन पंक्तियां हैं। अंतिम पंक्ति में घंटायुक्त कांचिपदम के चार पट्ट अर्द्धगोलाकार रूप में लटक रहे हैं । मध्य में घुटनों के नीचे तक मणिमालायें लटक रही हैं । इसके नीचे वस्त्र की सलवटें हैं। प्रत्येक पांव में चार वलय तथा एक मंजीर है। प्रतिमा के चार हाथ हैं परन्तु नीचे के दो हाथ टूट गये हैं । ऊपर के दोनों हाथों में भुजबंध तथा दो दो कंकण हैं। ऊपर के दाहिने हाथ में एक लम्बा कलमदान है, परन्तु बायें हाथ की वस्तु टूट गई है। प्रतिमा स्थानक (भावयक्त) है तथा त्रिभंगावस्था में है। ___ वाग्देवी के चरणों के पास दोनों ओर कुछ मूर्तियां बनी हुई हैं। दाहिनी ओर एक दाढ़ीयुक्त पुरुष है जिसके हाथों में कुछ वस्तु थी परन्तु वह टूट गई है, शायद वीणा रही हो । उसके सामने एक छोटे कद का पुरुष है जो संभवतः श्रीफल लिये है। दाहिनी ओर सिंहवाहिनी स्त्री है जिसके ऊपर (सोते अथवा सोने) खुदा है। इनके अतिरिक्त ऊपर मुख्य प्रतिमा के दाहिनी ओर एक उड़ती हुई देवकन्या की मूर्ति बनी है जिसके हाथ में पुष्पमाला है। बाई ओर की आकृति अस्पष्ट है। वाग्देवी ध्यान मुद्रा में है । इसका मुख सुन्दर व शान्त मुद्रा में है। उसकी उरु-माला व मुकुट की बनावट द्रविड़ शैली में है एवं उसके बाजुबंद व कंगन बंगाल-उड़ीसा की आदि मूर्तियों के समान हैं। (प. रा. इ. गां., पृष्ठ २७२-२७३ ) । प्रतिमाज्ञान विशेषज्ञ ओ. सी. गांगूली लिखते हैं कि यह प्रतिमा मनोरम, शांत मुद्रा, मनमोहक और सामंजस्यपूर्ण मधुर संबंधयुक्त है। गरूडीय आकारों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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