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________________ ardhar - मूर्ति अभिलेख ६९ की चारूता व माधुर्य और शरीर संस्थान के निरूपण के व्यापक निमंत्रण की दृष्टि से जो किसी भी अतिशयोक्ति से प्रायः मुक्त है वह अपूर्व सौंदर्य की उत्कृष्ट कृति है । उसकी गति धारणा का अभाव सर्वाधिक चित्ताकर्षक है जो राजसिक व सात्विक भावों के बीच में प्रायः परिवर्तित होता रहता है ( रूपम, १९२४, पृष्ठ १) | शिवराम मूर्ति महोदय के अनुसार भोज द्वारा संरक्षित परमार कालीन मूर्तियों का यह सर्वश्रेष्ठ नमूना उपस्थित है ( इंडियन स्कल्पचर, पृष्ठ १०७ ) । ऐसी संभावना है कि विद्याधरी की उक्तमूर्ति धार में भोजशाला के भीतर ठीक पश्चिम की ओर बड़े बरामदे में सामने की दीवार में बनी पीठिका में स्थापित थी। पीठिका में चढ़ने के लिये सीढ़ियां हैं। इन सीढ़ियों के स्तम्भों के पत्थर पर दोनों ओर नागबंध खुदे हुए हैं जिनमें पूर्ण वर्णमाला बनी हुई है । संभवतः यह बड़ा बरामदा ही वह सभागृह रहा होगा जहां विद्वत्सभा होती होगी । जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि प्रतिमा के पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख के पाठ में बहुत विभिन्नता है । इसका प्रमुख कारण कुछ अक्षरों का क्षतिग्रस्त होना है । वास्तव में पाठभेद केवल पद्यमय भाग में ही है, गद्यमय सारा भाग पूर्णतः सुरक्षित है । पद्यमय भाग के विभिन्न पाठ निम्नानुसार है: ( अ ) के. एन. दीक्षित द्वारा वाचन- "ओं श्रीमद्भोजनरेंद्रचंद्र नगरी विद्याधरी ( ? ). नधिः नम स स्म खलु सुखं [ प्र प्य न ] याप्सराः वाग्देवी[म्] प्रतिम[म्] विधाय जननी यस्याज्जि [तनम् त्रयी] . फलाधिकांधर [ सरिन् ] मूर्तिम् सुभं निर्ममे " ( रूपम् १९२४, पृ. २) (आ) सी. बी. लेले का पाठ -- ओं । श्रीमद्भोजनरेंद्रचंद्र नगरी विद्याधरी... Jain Education International म नधिनमासस्म खलु सुखं [ प्राप्यान ] याप्सरः वाग्देवी प्रतिमां विधाय जननीं यस्यार्जितानां वयीं . मूर्ति शुभां निर्ममे • फलाधिकां धारा.... ( परमार इंस्क्रिप्शनस इन धार स्टेट, १९४४, पृ. ९५ ) (इ) वी. एस. वाकणकर का प्रथम पाठ जो प्रत्यक्ष मूर्ति को प्रथमबार देखने पर तैयार किया थाओं श्रीमद्भोजनरेंद्रचंद्र नागरी विद्याधरी मंविः यो या नाम... . णंलु सुखं प्रस्थाप्यतां याप्सरः वाग्देवी थम विधाय ( विहाय ) जननीमस्यार्जितानां तयी मयचित्सुफलाधिकां वर रुचित मूर्ति शुभां निर्ममे । ( भोज सेमीनार में प्रस्तुत लेख, १९७० ) (ई) एल. एस. वाकणकर, बम्बई का पाठ - श्रीमद्भोजनरेंद्रचंद्र नगरीम्मूर्ती योद्यो नामर सुंदरी खलुसुखं प्रस्थाप्यतां याप्सराः वाग्देवी प्रथम विभाग जननी यस्यार्जितामत्रयी ययचित्सुफलाधिका वररुचिम्मूर्ति शुभां निर्ममे । ( उपरोक्त लेख से उद्धृत ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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