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________________ उदयपुर अभिलेख २६९ (६७) उदयपुर का देवपालदेव का मंदिर स्तम्भ अभिलेख (संवत् १२८९=१२३२ ई.) प्रस्तुत अभिलेख पूर्ववणित अभिलेख (क्र. ६६) के पास पूर्वी द्वार के दाहिनी ओर एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इसका उल्लेख इं. ऐं., भाग २०, पृष्ठ ८३; ए. रि. आ. डि. ग., सं. १९७४, क्र. १२०; भण्डारकर की सूची क्र. ५०८; कीलहान की सूचि क्र. १२४; ; ग. रा. अभि. द्वि., क्र. १०४ पर किया गया। अभिलेख १५ पंक्तियों का है। इसका क्षेत्र ३०.१४४०.८ सें. मी. है। इसके अक्षर अत्याधिक क्षतिग्रस्त हैं। अंतिम दो पंक्तियां तो पढ़ने में ही नहीं आतीं। इसके अक्षरों की बनावट १३वीं सदी की नगरी है। अक्षरों की सामान्य लंबाई २१ से ३ सें. मी. है। भाषा संस्कृत है एवं गद्य में है, परन्तु त्रुटियों से भरपूर है। व्याकरण के वर्ण-विन्यास की दृष्टि से श के स्थान पर स, ख के स्थान पर ष का प्रयोग है। कुछ शब्द ही गलत हैं। इन सभी को पाठ में ठीक कर दिया है। तिथि प्रारम्भ में संवत् १२८ (९) मार्गवदि ३ गुरुवार है। तिथि में इकाई का अंक कुछ क्षतिग्रस्त है। लगता है लेखक ने भी इसमें परिवर्तन किया है। शुरु में यह ३ या ४ था, बाद में काट कर ९ कर दिया। यह गुरुवार, २ दिसम्बर, १२३२ ई. के बराबर है। इस का ध्येय नरेश देवपालदेव के शासनकाल में कुछ ग्रामों में भूदान करने का उल्लेख करना है। परन्तु अभिलेख के क्षतिग्रस्त होने के कारण ग्रामों के नामों का सही ज्ञान नहीं हो सकता है। प्रस्तुत अभिलेख का कई कारणों से महत्त्व है। इसमें शासनकर्ता नरेश के लिए राजकीय उपाधियों “परमभट्टारक महाराजाधिराज' का प्रयोग किया गया है । इससे पूर्व के अभिलेखों में उसके लिए कनिष्ट उपाधियों समेत उल्लेख किया गया है। दूसरे, यद्यपि यह देवपालदेव का अंतिम प्राप्त अभिलेख है, परन्तु अन्य साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उसने इसके उपरान्त भी शासन किया था। उदाहरणार्थ, मुस्लिम साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि दिल्ली सुल्तान इल्तमिश (१२१०--१२३५ई.) ने प्रायः १२३३-३४ ई. में मालवा पर आक्रमण कर आसपास के क्षेत्र को लूटा तो देवपालदेव ने मुस्लिम प्रांतपति को भैल्लस्वामीपुर (भिलसा) के पास युद्ध में मार डाला एवं अपना सारा प्रदेश उस से स्वतंत्र करवा लिया। यह तथ्य उसके द्वितीय पुत्र जयसिंह-जयवर्मन द्वितीय के मांधाता ताम्रपत्र अभिलेख (क्र. ७६) के श्लोक क्र. ४८ से उजागर होता है। भौगोलिक स्थानों में पंक्ति ८ में भगोरी का उल्लेख है। इसी स्थान से प्राप्त ११७२ ई. के एक अन्य अभिलेख में, जिसके माध्यम से देव बैद्यनाथ के लिए लूणपसाक नामक ग्राम दान में दिया गया था, इसको भृगारिका लिखा है (इं. ऐं., भाग १८, पृष्ठ ३४७)। उस अभिलेख में इसको पथक निरूपित किया गया है, जबकि प्रस्तुत अभिलेख में इसको “चौसठ ग्राम-समूह" का मुख्यालय लिखा है। देवसमपुरी (देवधर्मपुरी?) संभवतः उदयपुर का ही अन्य नाम है। परन्तु यह भी संभव है कि यह नीलकंठेश्वर मंदिर के नाम पर ही कहीं आसपास कोई पत्तन (बड़ा ग्राम) रहा हो। अन्य दो ग्रामों के नाम पढ़ने में नहीं आ रहे हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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